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दूसरी वाचना :
कुछ समय पश्चात् महावीरनिर्वाण के लगभग ८२७ या ८४० वर्ष बाद (ईसवी सन् ३००-३१३में) आगमों को सुव्यवस्थित रूप देने के लिये आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में मथुरा में एक दूसरा सम्मेलन हुआ । इस समय एक बड़ा अकाल पड़ा जिससे साधुओं को भिक्षा मिलना कठिन हो गया और आगमों का अभ्यास छुट जाने से आगम नष्टप्राय हो गये । दुर्भिक्ष समाप्त होने पर इस सम्मेलन में जिसे जो स्मरण था, उसे कालिक श्रुत के रूप में एकत्रित कर लिया गया । इसे माथुरी वाचना के नाम से कहा जाता है । कुछ लोगों का कथन है कि दुभिक्ष के समय श्रुत का नाश नहीं हुआ, किन्तु आर्य स्कंदिल को छोड़कर अनेक मुख्य-मुख्य अनुयोगधारियों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा ।१४ तृतीय वाचना :
इसी समय नागार्जुनसूरि के नेतृत्व में वलभी में एक और सम्मलेन हुआ। इसमें, जो सूत्र विस्मृत हो गये थे उन्हें स्मरण करके सूत्रार्थ की संघटनापूर्वक सिद्धांत का उद्धार किया गया ।
इन दोनों वाचनाओं का उल्लेख ज्योष्करंडकटीका आदि ग्रंथों में मिलता है। ज्योतिष्करंडकटीका के कर्ता आचार्य मलयगिरि के अनुसार अनुयोगद्वार आदि सूत्र माथुरी वाचना और ज्योतिष्करंडक वलभी वाचना के आधार से संकलित किये गये हैं । उक्त दोनों वाचनाओं के पश्चात् आर्य स्कंदिल और नागार्जुनसूरि परस्पर नहीं मिल सके और इसीलिये सूत्रों में वाचनाभेद स्थायी बना रह गया ।१५
तत्पश्चात् लगभग १५० वर्ष बाद, महावीरनिर्वाण के लगभग ९८०या ९९३ वर्ष पश्चात् (ईस्वी सन् ४५३-४६६ में) वलभी में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में चौथा सम्मेलन बुलाया गया । इस संघसमवाय में विविध पाठान्तर और वाचनाभेद आदि का समन्वय करके माथुरी वाचना के आधार से आगमों को संकलित कर उन्हें लिपिबद्ध कर दिया गया । जिन पाठों का समन्वय नहीं हो सका उनका 'वायणान्तरे पुण', 'नागार्जुनीयास्तु एवं वदन्ति' इत्यादि रूप में उल्लेख किया गया ।६ दृष्टिवाद फिर भी उपलब्ध न हो सका, अतएव उसे व्युच्छिन्न घोषित कर दिया गया । इसे जैन आगमों की अंतिम वाचना कहते हैं । श्वेतांबर सम्प्रदाय द्वारा मान्य वर्तमान आगम इसी संकलना का परिणाम है ।१७
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