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भाषा का व्यवहार किया । वर्द्धमान महावीर के उपदेशों का संग्रह उनके समसामयिक शिष्य-गणधरों ने किया । उन गणधरों द्वारा रचित ग्रन्थ श्रुत कहलाते हैं । श्रुत शब्द का अर्थ है - सुना हुआ अर्थात् जो गुरूमुख से सुना गया हो । भगवान महावीर के उपदेश उनके शिष्य-गणधरों ने सुने और गणधरों से उनके शिष्यों ने । इस प्रकार शिष्य-प्रशिष्यों के श्रवण द्वारा प्रवर्तित होने से श्रुत कहलाया और यही श्रुत आगे जाकर आगम के नाम से प्रसिद्ध हुआ । आगमों को श्रुतज्ञान अथवा सिद्धांत भी कहा जाता हैं ।।
आगम-साहित्य की तीन वाचनायें (ईसवी सन् के पूर्व ५वीं शताब्दी से लेकर ईसवी सन् की ५ वी
शताब्दी तक) जैन परंपरा के अनुसार अर्हत् भगवान ने आगमों का प्ररूपण किया और उनके गणधरों ने इन्हें सूत्ररूप में निबद्ध किया ।११ प्रथम वाचना :
भगवान महावीर के लगभग १६० वर्ष पश्चात् (ईसवी सन् के पूर्व लगभग ३६७ में) चंद्रगुप्त मौर्य के काल में मगध में भयंकर अकाल पड़ा, जिससे अनेक जैन भिक्षु भद्रबाहु के नेतृत्व में समुद्रतट की ओर प्रस्थान कर गये । बाकी बचे हुए स्थूलभद्र (स्वर्गगमन महावीर निर्वाण के २१६ वर्ष पश्चात्) के नेतृत्व में वहीं रहे । अकाल समाप्त हो जाने पर स्थूलभद्र ने पाटलिपुत्र में जैन श्रमणों का एक सम्मेलन बुलाया । जिसमें श्रुतज्ञान को व्यवस्थित करने के लिये खंडखंड करके ग्यारह अंगों का संकलन किया गया। लेकिन दृष्टिवाद किसी को याद नहीं था इसलिए पूर्वो का संकलन नहीं हो सका । चतुर्दश पूर्वधारी केवल भद्रबाहु थे । वे उस समय नेपाल में महाप्राण की साधना कर रहे थे । ऐसे समय मे संघ की ओर से पूर्वो का ज्ञान-संपादन करने कि लिये कुछ साधुओं को नेपाल भेजा गया । लेकिन इनमें से केवल स्थूलभद्र ही टिक सके, बाकी लौट आये। स्थूलभद्र पूर्वो के ज्ञाता तो हो गये किन्तु किसी दोष के प्रायश्चित स्वरूप भद्रबाहु ने अंतिम चार पूर्वो के अध्यापन के लिये मना कर दिया । इसी समय से शनैःशनैः पूर्वो का ज्ञान नष्ट होता चला गया । जो कुछ भी उपलब्ध हुआ उसे पाटलिपुत्र के सम्मेलन में सिद्धांत के रूप में संकलित कर लिया गया । यही जैन आगमों की पाटलिपुत्र वाचना अथवा प्रथम वाचना कही जाती है ।१३
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