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में भी एक दूसरे से कुछ भी ग्रहण किया था । इतिहास के पृष्ठ इस बात के साक्षी हैं कि भगवान् महावीर के समय भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमण, श्रमणियाँ, श्रावक और श्राविकाओं की अविच्छिन्न धारा चल रही थी । पर महावीर ने इस परम्परा को स्वीकार नहीं किया । केवलज्ञान - केवलदर्शन होने के पश्चात् उन्होंने नये संघ का प्रवर्तन किया, और जो पार्श्वनाथ की परम्परा के सन्त थे, उन्होंने महावीर की परम्परा को ग्रहण किया । इससे यह सिद्ध है कि प्रत्येक तीर्थंकर की स्वतंत्र व्यवस्था होती है ।
भगवान महावीर एवं उनकी परंपरा :
भगवान महावीर के निर्वाणोपरान्त उनके गणधर गौतम जैन संघ के नायक बने । भगवान महावीर का शिष्यत्व ग्रहण करने के पूर्व वह वेद-वेदान्त के ज्ञाता प्रकाण्ड ब्राह्मण पण्डित थे । भगवान महावीर के निर्वाण के दिन ही इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ । १२ वर्ष तक संघ इनके नेतृत्व में रहा । तत्पश्चात् महावीर संवत् १२ ( ई० पू० ५१५) में निर्वाण को प्राप्त हुए । उनके बाद सुधर्माचार्य को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ । २२ वर्षो तक संघ इनके नेतृत्व में रहा । उनके निर्वाण के उपरान्त जम्बू स्वामी संघ के नायक बने । ये चंपा नगरी में एक कोट्याधीश श्रेष्ठी के पुत्र थे और महावीर स्वामी के प्रभाव से शिष्य हो गये थे । उन्होंने ३९ वर्ष तक धर्म प्रवचन दिया और अन्त में मथुरा के चौरासी नामक स्थान पर उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया । उनके पश्चात् क्रमशः विष्णुकुमार, नन्दिपुत्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली हुए, जिनके नेतृत्व में संघ चला । इन पाँचों का कालयोग १०० वर्ष होता है । इन्हें सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञान
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था ।
इन में अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु का जैन धर्म के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है । इनके पूर्व समस्त जैन संघ अखंड और अविभक्त था । उनके समय में बारह वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा और संघभेद का सूत्रपात हो गया ।' यह जैन इतिहास में प्रसिद्ध बात है ।
सभी श्रुतज्ञान को सूत्रबद्ध किस प्रकार किया गया, कितनी वाचनाएँ हुई, आगम साहित्य को पुस्तकारुढ किसने किया, ये सब हकीकतें संक्षिप्त में हम देखेंगे ।
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