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में अभिवृद्धि । संयमी जन अनेक कष्ट सहन कर के भी प्रभु का शासन अविचल अटल अचल रखेंगे । आराधक आत्माएं आराधना कर स्वहित एवं परहित साधते रहेंगें । कषायों की उत्तरोत्तर वृद्धि । काम-आसक्ति में वृद्धि । मद-अभिमान वश संघर्ष में वृद्धि । शहर ग्राम में परिवर्तित होंगें और ग्राम श्मशान में । कुलीन स्त्रियाँ आचारहीन होगी । सुकुलोत्पन्न प्राय: दास दासी बनेंगें और हीन कुलवाले धर्म रसिक तथा साधका राजा यम जैसे क्रूर होंगे । विनय मर्यादा का हास । गुणवानों की निंदा । क्षुद्र जंतुओं की अधिक उत्पत्ति । अकाल विशेष पडेंगें । लोभी लालचियों में निरंतर वृद्धि । मत-मतांतरों की विशेष उत्पत्ति । मिथ्यामतों में वृद्धि । देवताओं का प्रत्यक्ष न होना ।।
विद्याओं के प्रभाव में हानि । दूध, दही, घृत, धान्यादी उत्तम पदार्थों के सत्त्व में कमी । मानव के आयुष्य-प्रमाण में कमी । सुशील, सरल स्वभाववालों की कमी । कपटी-कुशील कदाग्रहियों में वृद्धि । इस प्रकार यह काल अधिक दुःखमय और विषमताओ से भरा-भरा होगा । वर्तमान में यही आरा चल रहा
(६) दुःषम दुःषम :
कालमान २१ हजार वर्ष । इस काल में मानवदेह १ हाथ । पसलियाँ ८ । आहारादि की इच्छा अमर्याद और अनियमित । दिन में सख्त ताप, रात में भयंकर शीत । महल और मकान सब नष्ट होने जाने से मानव जाति वैताढ्य पर्वत के उत्तर और दक्षिण में गंगा-सिंधु के आमने सामने के तटपर जो ३६+३६ बिले हैं उसमें वास करेगी । बिलवासी मानव मछलियाँ और जलचरों को पकडकर रेती में दबाएगे । दिन के प्रचंड ताप में भून जाने पर रात में उसका भक्षण करेंगे । परस्पर क्लेश करनेवाले, दीन-हीन, दुर्बल, दुर्गंध, रोगिष्ट, अपवित्र, नग्न आचारहीन और माता बहन-पत्नी के प्रति विवेकहीन । छह वर्ष की बालिका गर्भ धारण कर बालकों को जन्म देगी । स्त्रीयाँ सुअर के सदृश अधिकाधिक बच्चे पैदा कर महाक्लेश का अनुभव करेंगी । धर्म पुण्य रहित । अतिशय दुःख के कारण अशुभ कर्म उपार्जन कर जीव नरक तिर्यंचादि गति प्राप्त करेंगे । इस आरे में दुःख ही दुःख है ।
इस प्रकार सुख-दुःख का स्वरूप अवसर्पिणी काल में होता है । उत्सर्पिणी काल में सुख में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है । अवसर्पिणी काल में दुःख का
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