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एक अवसर्पिणी काल, दूसरा उत्सर्पिणी काल । प्रत्येक के छ: छ: भाग (आरे) होते हैं । अवसर्पिणी काल और उत्सर्पिणी काल मिलकर एक कालचक्र पूर्ण होता है।
जैनों की कालचक्र की कल्पना बौद्ध और हिंदू कालचक्र की कल्पना से भिन्न है। किन्तु इन सभी में इस बात को लेकर समानता है कि इन सभी कालचक्र के विभाजन का आधार सुख-दुःख एवं मनुष्य के नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की क्षमता को बनाये रखता है ।
अवसर्पिणी काल :
जिस कालखण्ड में प्रत्येक समय पर शुभ पुद्गलों की हानि एवं अशुभ पुद्गलों की वृद्धि हो रही हो उस काल को अवसर्पिणी काल कहते है । छह आरों के नाम निम्नुसार है :- (१) सुषम सुषम (२) सुषम (३) सुषम दुःषम (४) दुःषम सुषम (५) दुःषम (६) दुःषम दुःषम । (१) सुषम सुषम :
चार कोडा कोडी सागरोपम के आरे में मनुष्यों का देहमान ३ कोस, आयुष्य ३ पल्योपम और उसके शरीर में २५६ पसलियाँ होती है । उनकी इच्छाआकांक्षाएँ दस प्रकार के कल्पवृक्ष पूर्ण करते हैं । उन्हें तीन-तीन दिन के अन्तर से आहार की इच्छा होती है । कल्पवृक्ष के फल इतने रसप्रचुर, स्वादिष्ट और शक्तिवर्धक होते हैं कि तुअर के दाने जितना आहार ग्रहण करने मात्र से संतोष होता है । स्वयं के आयुष्य के ६ मास शेष रहे हो तब युगलिनी एक युग (पुत्रपुत्री) को जन्म देती है और ४९ दिन तक उनका पालन पोषण करती है । तत्पश्चात् नवजात युगल स्वावलंबी होकर स्वतंत्र घूमता है । उनके माता-पिता की मृत्यु, आयुष्य पूर्ण होने के समय एक छींक और एक जंभाई आने से होती है । वे अल्प विषयी और अल्प कषायी होने के कारण देवगति प्राप्त करते हैं । इस आरे में सुख ही सुख होता है ।
(२) सुषम :
कालमान तीन कोडाकोडी सागरोपम । देह, बुद्धि, बल, आयुष्य, कांति, पृथ्वी आदि के रस में एवं सारभूत पदार्थों के गुणों में उत्तरोत्तर हानि । देहमान २ कोस, आयुष्य २ पल्योपम और १२८ पसलियों से युक्त शरीर । आहारेच्छा
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