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जैन आगम साहित्य
जैनधर्म दर्शन, साहित्य और संस्कृति का मूल आधार आगम साहित्य हैं । आगम साहित्य की सुदृढ़ नींव पर ही जैनदर्शन व संस्कृति का सुनहरा भव्यप्रासाद खड़ा है । जैन आगम श्रमण भगवान महावीर की वीतराग वाणी का अपूर्व खजाना है ।
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वैदिक परम्परा में जो स्थान वेद का है, बौद्ध परम्परा में जो स्थान त्रिपिटक का है, ईसाई धर्म में जो स्थान बाईबिल का है, ईस्लाम धर्म में जो स्थान कुरान का है वही स्थान जैन - - परम्परा में आगम- साहित्य का है । वेद तथा बौद्ध और जैन आगम - साहित्य में महत्त्वपूर्ण भेद यह रहा है कि वैदिक परम्परा के ऋषियों ने शब्दों की सुरक्षा पर अधिक बल दिया जबकि जैन और बौद्ध परम्परा में शब्दार्थ पर अधिक बल दिया गया है ।
वेद के शब्दों में मंत्रों का आरोपण किया गया है, जिससे शब्द तो सुरक्षित रहे, पर उसका अर्थ नष्ट हो गया । जैन आगम साहित्य में मंत्र - शक्ति का आरोप न हेने से शब्दार्थ पूर्ण रूप से सुरक्षित रहा है ।
वेद किसी एक ऋषि विशेष के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, जब कि जैन गणिपिटक एवं बौद्ध त्रिपिटक क्रमशः भगवान महावीर और तथागत बुद्ध की वाणी का प्रतिनिधित्व करते हैं । जैन आगमों के अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर रहे हैं और सूत्र के रचयिता गणधर हैं ।"
जैन संस्कृति अध्यात्म प्रधान है । जैन आगमों में अध्यात्म का स्वर प्रधान रूप से झंकृत हो रहा है, जबकि वेदों में लौकिकता का स्वर मुखरित रहा है । यहाँ पर यह बात भी विस्मृत नहीं होनी चाहिए कि आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व अणु-विज्ञान, जीव-विज्ञान, वनस्पति - विज्ञान आदि के सम्बन्ध में जो बाते जैन आगमों में बताई गई हैं, उन्हें पढ़कर आज का वैज्ञानिक भी विस्मित है । जैन आगम साहित्य का इन अनेक दृष्टियों से भी महत्त्व रहा है । १०
जैन सांस्कृतिक इतिहास और विकास में आगमिक साहित्य का महत्त्वपूर्णं स्थान है । आगमिक साहित्य दो भाषाओं में निबद्ध है- अर्धमागधी और शौरसेनी । भगवान महावीर का मूल उपदेश अर्धमागधी में हुआ था । भगवान महावीर की शिष्यपरम्परा ने भी जन सामान्य में मानवता एवं सदाचार के प्रचार के लिए इसी
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