Book Title: Hitopadesh
Author(s): Prabhanandsuri, Parmanandsuri, Kirtiyashsuri
Publisher: Sanmarg Prakashan
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२९६
हितोपदेशः । गाथा-२३० - विनयगुणविषये अभयकुमारकथानकम् ।।
न हु एयाओ अहिया न एयतुल्ला य पत्थिवा इत्तो । पडिवजिस्संति वयं कुमार ! दुसमाणुभावेण ।।१२७।। सोऊणय जगगुरुणो अमोहवयणस्सतारिसंवयणं । रजंमि निष्पिवासो अभओसभओयभवभमणे ।।१२८ ।। चलणेसु निवडिऊणं नियपियर सेणियं नरवरिंदं । विनवइ ताय ! जाओ चिराय मह पत्थणावसरो ।।१२९ ।। चरमं रायरिसित्तं इत्तियदिवसाणि अहिलसंतेण । विहिओ वयगहणत्थं न मए तुह ताय ! निब्बंधो ।।१३०।। तहभव्वत्तवसेणं तं पुण मह ताव नेव संघडियं । ता जइ रजं गिन्हामि हुज ता न खलु पवजा ।।१३१।। ता पसिऊण विसजसु संजमजोगुजमाय मंताय ! । मोएसु भवदुहाओ जइ सधं तुह पिओ अहयं ।।१३२।। लभ्रूण तुमं पियरं धम्मायरियं च सिरिमहावीरं । जइ न चइस्सामि भवं ता को कीवो ममाहितो ।।१३३।। अह मनुसन्नकंठो भणइ निवो ठाविउं कहवि वयणं । जुत्तं तुज्झ विरत्तं चित्तं पुत्तय ! भवदुहाओ ।।१३४।। सजंति पंकपडिमे संसारे सूयरोवमा जीवा । न रमंति इमंमि पुणो सप्पुरिसा रायहंस व्व ।।१३५ ।। कुव्वंति अकजं पि हु जस्स कए निवइनंदणा अहमा । दिजंतं पि हु रजं तं गिन्हसि उत्तमो न तुमं ।।१३६।। इयरा विनतुह विहिया पुत्त !मए पत्थणा कह विविहला ।ता कह उत्तमकम्मेइमम्मितुह होमि विग्घोहं ।।१३७ ।। नयवच्छ ! नेय जाणामि जं तइ चिय समं पउत्थं मे । सयलं पि हु रजसुहं तहावि तुह होउ निविग्धं ।।१३८ ।। इय भणिरेणं सेणियनिवेण नरनाहनिक्खमणजुग्गा । सयला वि हु सामग्गी नियपियतणयस्स तस्स कया ।।१३९।। धाराधरु ब्व तत्तो वरिसंतो भूरिकणयधाराहिं । बंधु व चारयाओ दुहत्तसत्ते विमोइंतो ।।१४०।। अणुगिन्हंतो नायरजणं च महुरेहिं दिट्ठिवाएहिं । सिरिवीरचरणमूले अभयकुमारो समणुपत्तो ।।१४१।। सुविसुज्झमाणलेसोखणेखणे तयणु सो महासत्तो । परिचत्तसयलसंगो जिणपयमूले विणिक्खंतो ।।१४२।। नंदा विहु पब्वइया समगं चिय तेण विहुणियममत्ता । सब्बत्थ उदयलच्छी पुरस्सर चिय जओ रविणो ।।१४३।। उत्तमबुद्धित्तणओ 'सामायारी दसप्पयारावि । अचिरेण वि अब्भत्था अभयकुमाराणगारेण ।।१४४।। पयइविणीओ विणयं गुरुथेरबहुस्सुयाण पयडंतो । सयलं पि समयसारं तरंगियं कुणइ हिययम्मि ।।१४५।। सुमरंतो खरकम्मं पउत्तपुव्वं च निवनिओगेणं । अनंतखरतरं चिय तवइ तवं ताविउं कम्मं ।।१४६।। सामाइएहिं विहिया बाहिररिउणो जहा वसे पुव्वं । एवं समाइएहिं अंतररिउणो कया तेण ।।१४७।। लोइयनीईई पुरा अक्खलियं जह पयट्टिओ लोओ । लोउत्तरनीईए तेण वयत्थेण वि तहेव ।।१४८।। जह बुद्धिगुणेण जणे पत्तो कित्तिं गिहित्तणमि इमो । विणयाइगुणगणेहिं तहेव अणगारभावे वि ।।१४९।।
2. दशधा सामाचारी इयं - इच्छा - मिच्छा - तहक्कारो आवस्सिया य णिसीहिया । आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य णिमंतणा ।। उवसंपया य काले, सामायारी भवे दसविहा उ । एएसिं तु पयाणं, पत्तेयपरूवणा एसा ।।
- पञ्चा. १२/२-३ गा. ।।
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