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हरिवंशपुराणे
[६] हरिवंशका रचना-स्थान
हरिवंशपुराणको रचनाका प्रारम्भ वर्द्धमानपुरमें हुआ और समाप्ति दोस्तटिकाके शान्तिनाथ जिनालयमें हुई । यह वर्द्धमानपुर सौराष्ट्रका प्रसिद्ध शहर 'वढवाण' जान पड़ता है क्योंकि हरिवंशपुराणमें उस समयकी जो भौगोलिक स्थिति बतलायी है उसपर विचार करनेसे उक्त कल्पनाको बल प्राप्त होता है ।
हरिवंशपुराणके ६६वें सर्गके ५२ और ५३वें श्लोकमें कहा है कि शकसंवत् ७०५ में जब कि उत्तर दिशाकी इन्द्रायुध, दक्षिण दिशाकी कृष्णका पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्वकी अवन्तिराज वत्सराज और पश्चिमकीसौरोंके अधिमण्डल सौराष्ट्र की वीर जयवराह रक्षा करता था तब अनेक कल्याणोंसे अथवा सुवर्णसे बढ़नेवाली विपुल लक्ष्मीसे सम्पन्न वर्धमानपुरके पार्श्वजिनालयमें जो कि नन्नराज वसतिके नामसे प्रसिद्ध था यह ग्रन्थ पहले प्रारम्भ किया गया और पीछे चलकर दोस्तटिकाकी प्रजाके द्वारा उत्पादित प्रकृष्ट पूजासे युक्त वहांके शान्ति जिनेन्द्रके शान्तिपूर्ण गृहमें रचा गया।
वढवाणसे गिरिनगरको जाते हए मार्गमें 'दोत्तडि' नामक स्थान है वही 'दोस्तटिका' है। प्राचीन गुर्जर-काव्य संग्रह (गायकवाड सीरिज ) में अमुलकृत चर्चरिका प्रकाशित हई है उसमें एक यात्रीकी गिरिनार-यात्राका वर्णन है। वह यात्री सर्वप्रथम वढवाण पहुँचता है. फिर क्रमसे रंनदुलई, सहजिगपुर, गंगिलपुर और लखमीघरुको पहुँचता है। फिर विषम दोत्तडि पहुँचकर बहुत-सी नदियों और पहाड़ोंको पार करता हुआ करिवंदियाल पहुँचता है। करिवंदियाल और अनन्तपुरमें डेरा डालता हुआ भालणमें विश्राम करता है। वहाँसे उसे ऊँचा गिरिनार पर्वत दिखने लगता है। यह विषम दोत्तडि ही दोस्तटिका है।
वर्धमानपुर ( बढ़वाण ) को जिस प्रकार जिनसेनाचार्यने अनेक कल्याणोंके कारण विपुलश्रीसे सम्पन्न लिखा है उसी प्रकार हरिषेणकथाकोशके कर्ता हरिषेणने भी उसे 'कार्तस्वरापूर्णजनाधिवास' लिखा है । कार्तस्वर और कल्याण दोनों ही स्वर्णके वाचक हैं इससे सिद्ध होता है कि वह नगर अत्यधिक समृद्ध था और उसको समृद्धि जिनसेनसे लेकर हरिषेण तक १४८ वर्षके लम्बे अन्तराल में भी अक्षुण्ण बनी रही। हरिषेणने अपने कथाकोशकी रचना भी इसी वर्द्धमानपुर ( वढ़वाण ) में शक संवत् ८५३ (वि. सं. ९८९ ) में पूर्ण की थी।
यद्यपि जिनसेन पुन्नाट संघके थे और पुन्नाट नाम कर्नाटकका है तथापि विहारप्रिय होनेसे उनका सौराष्ट्र की ओर आगमन युक्ति-सिद्ध है। सिद्धक्षेत्र गिरिनार पर्वतकी वन्दनाके अभिप्रायसे पुन्नाट संघके मुनियोंने इस ओर विहार किया हो, यह आश्चर्यकी बात नहीं। जिनसेनने अपनी गुरुपरम्परामें अमितसेनको पुन्नाट गणके अग्रणी और शतवर्पजीवी लिखा है । इससे जान पड़ता है कि यह संघ अमितसेनके नेतृत्व में ही पुन्नाट-कर्नाटक देशको छोड़कर उत्तर भारतकी ओर आया होगा और पुण्यभूमि श्री गिरिनार क्षेत्रकी वन्दनाके निमित्त सौराष्ट्र ( काठियावाड़ ) में गया होगा।
वर्द्धमानपुरकी चारों दिशाओं में जिन राजाओंका वर्णन जिनसेनने किया है, उनपर भी विचार कर लेना आवश्यक है
१. शाकेष्वन्दशतेषु सप्तमु दिशं पश्चोत्तरेषुत्तरी
पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणाम् । पूर्वा' श्रीमदवन्तिभूभृति नृपे वत्सादिराजे परां
शौर्याणामधिमण्डलं जययुते वीरे वराहेऽवति ॥५२॥ कल्याणैः परिवर्धमान-विपुल-श्रीवर्धमाने पुरे
श्रीपावलिय-नन्नराजवसतो पर्याप्तशेषः पुर।। पश्चादोस्त टिका प्रजा प्रजनितप्राज्यार्चना वर्जने
शान्तेः शान्तगृहे जिनस्य रचितो बंशो हरीणामयम् ॥१३॥
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