________________
प्रस्तावना
करता है। यहाँ श्लेषसे विमलपदके (विमलमूरिके चरण और विमल हैं पद जिसके ऐसा हरिवंश) दो अर्थ घटित होते हैं। विमलसूरिका यह 'हरिवंश' अभी तक अप्राप्य है, इसके मिलनेपर हरिवंशके मूलाधारका निर्णय सहज हो सकता है । वर्णन शैलीको देखते हुए इन्होंने रविषेणके पद्मचरितको अच्छी तरह देखा है यह स्पष्ट है । पद्ममय ग्रन्थोंमें गद्यका उपयोग अन्यत्र देखने में नहीं आता परन्तु जिस प्रकार रविषेणने पद्मचरितमें वृत्तानुगन्धी गद्यका प्रयोग किया है उसी प्रकार जिनसेनने भी हरिवंशके ४९वें सर्गमें नेमि जिनेन्द्रका स्तवन करते हुए वृत्तानुगन्धी गद्यका प्रयोग किया है। हरिवंशका लोकविभाग एवं शलाकापुरुषोंका वर्णन 'त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति' से मेल खाता है । द्वादशांगका वर्णन राजवातिकके अनुरूप है, संगीतका वर्णन भरतमुनिके नाट्यशास्त्रसे अनुप्राणित है और तत्त्वोंका निरूपण तत्त्वार्थसूत्र तथा सर्वार्थसिद्धि के अनुकूल है। इससे जान पड़ता है कि आचार्य जिनसेनने उन सब ग्रन्थोंका अच्छी तरह आलोडन किया है। तत्तत्प्रकरणोंमें दिये गये तुलनात्मक टिप्पणोंसे उक्त बातका निर्णय सुगम है। हाँ, व्रतविधान, समवसरण तथा जिनेन्द्र विहारका वर्णन किससे अनुप्राणित है ? यह निर्णय मैं नहीं कर सका। [४] हरिवंशपुराणके रचयिता आचार्य जिनसेन
हरिवंश पुराणके रचयिता आचार्य जिनसेन पुन्नाट संघके थे । ये महापुराणादिके कर्ता जिनसेनसे भिन्न हैं। इनके गुरुका नाम कीतिषण और दादागुरुका नाम जिनसेन था। महापुराणादिके कर्ता जिनसेनके गुरु वीरसेन और दादागुरु आर्यनन्दी थे । पुन्नाट कर्नाटकका प्राचीन नाम है इसलिए इस देशके मुनिसंघका नाम पुन्नाट संघ था । जिनसेनका जन्मस्थान, माता-पिता तथा प्रारम्भिक जीवनका कुछ भी उल्लेख उपलब्ध नहीं है । गृहविरत पुरुषके लिए इन सबके उल्लेखकी आवश्यकता भी नहीं है।
आचार्य जिनसेन बहुश्रुत विद्वान् थे—यह हरिवंशपुराणके स्वाध्यायसे स्पष्ट हो जाता है। हरिवंशपुराण पुराण तो है ही साथ ही इसमें जैन वाङ्मयके विविध विषयोंका अच्छा निरूपण किया गया है इसलिए यह जैन-साहित्यका अनुपम ग्रन्थ है। [५] ग्रन्थकर्ताको गुरु-परम्परा
हरिवंशपुराणके छयासठवें सर्गमें भगवान् महावीरसे लेकर लोहाचार्य तककी वही आचार्य-परम्परा दी है जो कि श्रुतावतार आदि अन्य ग्रन्थोंमें मिलती है । परन्तु उसके बाद अर्थात् वीर निर्वाणसे ६८३ वर्षके अनन्तर जिनसेनने अपने गुरु कोतिषण तककी जो अविच्छिन्न परम्परा दी है वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं है । इस दृष्टिसे इस ग्रन्थका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। वह परम्परा इस प्रकार है-विनयधर, श्रुतिगुप्त, ऋषिगुप्त, शिवगुप्त, मन्दरार्य, मित्रवीर्य, बलदेव, बलमित्र, सिंहबल, वीरवित्, पद्मसेन, व्याघ्रहस्ति, नागहस्ति, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपसेन, धरसेन, धर्मसेन, सिंहसेन, नन्दिषेण, ईश्वरसेन, नन्दिषेण, अभयसेन, सिद्धसेन, अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन, शान्तिषेण, जयसेन, अमितसेन; कीर्तिषण और जिनसेन ( हरिवंशके कर्ता)।
___ इनमें अमितसेनको पुन्नाटगणका अग्रणी तथा शतवर्षजीवी बतलाया है । वीरनिर्वाणसे लोहाचार्य तक ६८३ वर्षमें २८ आचार्य बतलाये हैं। लोहाचार्यका अस्तित्व वि. सं. २१३ तक अभिमत है और वि. सं. ८४० तक जिनसेनका अस्तित्व सिद्ध है। इस तरह इस ६२७ वर्षके अन्तरालमें ३१ आचार्योंका होना सुसंगत है।
१. ब्र, जीवराज ग्रन्थमाला सोलापुर से प्रकाशित त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति द्वितीय भागकी प्रस्तावनामें उसके सम्पादक डॉ.हीरालालजी
और डॉ. ए. एन. उपाध्येने त्रैलोक्यप्रज्ञप्तिको अन्य ग्रन्थों के साथ तुलना करते हुए हरिवंशके साथ भी उसकी तुलना की है
और दोनों के वर्णनमें कहाँ साम्य और कहाँ वैषम्य है। इसकी अच्छी चर्चा की है। विस्तार भयसे हम यहाँ उस चर्चाको न लेकर पाठकोंका ध्यान उस ओर अवश्य आकृष्ट करते हैं। २. हरिवंशपुराण, सर्ग ६६, श्लो, २२-३३ 1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org