Book Title: Harivanshpuran
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 11
________________ [१] सम्पादन - परिचय प्रस्तावना हरिवंश पुराणका सम्पादन निम्नलिखित ६ प्रतियोंके आधारपर हुआ है- 'क' प्रति - यह प्रति पं. परमानन्दजी शास्त्रीके सौजन्य से श्री दि. जैन सरस्वती भण्डार धर्मपुरा, देहलीसे प्राप्त हुई थी । इसकी पत्रसंख्या २८२ है, प्रति पत्रपर १३-१४ पंक्तियाँ और प्रति पंक्ति में ४२ से ४५ तक अक्षर । प्रति प्राचीन है, जर्जर होनेसे कितने हो पत्र अलग कर नये पत्र लिखाये गये हैं । अन्तिम पत्र भी जर्जर होनेसे बदला गया है इसलिए लिपि संवत्का पता नहीं चल सका । स्याही लाल-काली है, अक्षर सुवाच्य हैं, जहाँ-तहाँ टिप्पणी भी दी गयी हैं प्रायः पाठ शुद्ध हैं । पत्रोंकी साइज ११ × ५ इंच है। इसका सांकेतिक नाम 'क' है । । 'ख' प्रति - यह प्रति भी पं. परमानन्दजी शास्त्रीके सौजन्यसे पंचायती मन्दिर देहलीसे प्राप्त हुई है । संवत् १८७१ में लिखी गयी है । दशा अच्छी है; परन्तु कागज जर्जर होने लगा है । लाल-काली स्याही हैं, पत्रसंख्या ३३० है । प्रतिपत्र में १२-१३ पंक्तियाँ हैं और प्रति पंक्ति में ३५-३८ अक्षर हैं । पत्रोंकी साइज १२३x६ इंच है। इसका सांकेतिक नाम 'ख' है । 'ग' प्रति - यह प्रति श्री पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ और डॉ. कस्तूरचन्द्रजी कासलीवाल जयपुरके सौजन्य से प्राप्त हुई है । इसमें १२४५ साइजके ३१३ पत्र हैं । प्रतिपत्रमें १२ पंक्तियाँ हैं और प्रतिपंक्ति ४५-५० तक अक्षर हैं प्राचीन है, परन्तु बीच-बीच में कई जगह जीर्ण-शीर्ण हो जाने से नये पत्र लिखाकर शामिल कराये गये हैं । कहीं-कहीं टिप्पण भी दिये गये हैं, पाठ शुद्ध है, दशा अच्छी है । लेख संवत् १८३० है । इसका सांकेतिक नाम 'ग' है । । 'घ' प्रति - यह प्रति भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट पूनासे उपलब्ध हुई थी। इसमें १२ x ५ इंचके ३७६ पत्र, प्रतिपत्र १२ पंक्तियों और प्रतिपंक्ति में ३६-४० अक्षर हैं । काली-लाल स्याही से लिखी गयी है, सुवाच्य लिपि है और दशा अच्छी है । लेखनकाल अज्ञात है फिर भी कागजकी दशा से अधिक प्राचीन मालूम होती है । इसका सांकेतिक नाम 'घ' है । 'ङ' प्रति---यह प्रति पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ और डॉ. कस्तूरचन्द्रजी कासलीवालके सौजन्यसे जयपुरसे प्राप्त हुई थी। इसमें १२५ इंचकी साइजके ४२० पत्र हैं । प्रतिपत्रमें ११-१२ पंक्तियाँ और प्रतिपंक्ति में ४०-४२ अक्षर हैं। अक्षर सुवाच्य हैं, कागज पतला है, लेखनकाल १६४० विक्रम संवत् है । दशा अच्छी है, स्याही के दोषसे कुछ पत्र परस्पर चिपक गये हैं। बीच-बीच में कुछ टिप्पणी भी हैं, पाठ शुद्ध है । अन्तमें लेख है— 'संवत् १६४० वर्षे चैत्रे मासे शुक्लपक्षे षष्ठ्यां तिथो बुधवासरे रोहिणी नामक नक्षत्रे श्री मूलसंघे' । इसका सांकेतिक नाम 'ङ' है । 'म' प्रति - यह प्रति माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से पं. दरबारीलालजी न्यायतीर्थ ( साम्प्रतिक नाम - सत्यभक्त ) के द्वारा सम्पादित होकर दो भागोंमें मूलमात्र प्रकाशित हुई है । जहाँ कहीं खटकने लायक अशुद्धियाँ रह गयी हैं । इसका सांकेतिक नाम 'म' है । उक्त छह मूल प्रतियों के पाठसे भी जहाँ कहीं शुद्ध पाठका निर्णय नहीं हो सका वहाँ श्री ऐलक [२] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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