Book Title: Harivanshpuran
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ हरिवंशपुराणे मन्त्र-तन्त्र सीखनेके लिए पद्मावती नगरीसे श्रीपर्वतको जानेकी बात कही है। इस प्रकारके और भो अनेक उल्लेख मिलते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि सातवीं शती व उसके आस-पास श्रीपर्वत मन्त्र-तन्त्रात्मक ऋद्धि-सिद्धि के लिए देशप्रसिद्ध केन्द्र बन गया था। इसी ख्यातिके कारण कुछ तिब्बती ग्रन्थोंमें तो यहाँ तक कहा गया है कि भगवान बुद्धने अपना धर्मचक्र प्रवर्तन धान्यकटक ( श्रीपर्वतके निकटवर्ती नगर ) में ही किया था ( राहुल सांकृत्यायन कृत पुरातत्त्व-निबन्धावली)। खुदाईसे प्राप्त हुई पुरातत्त्व सामग्रीके आधारसे उक्त श्रीपर्वत आधुनिक आन्ध्रप्रदेशके गुण्टूर जिलेमें स्थित नागार्जुनी कोंडासे अभिन्न सिद्ध किया गया है। इस पहाड़ीका अब स्थानीय नाम नहरल्लवडु है। पूर्व इतिहासके ऐसे प्रकाशमें अब सन्देह नहीं रहता कि हरिवंशपुराणके कर्ताको भी श्रीपर्वतकी उक्त प्रख्याति विज्ञात थी, और उसीको तुलनामें उन्होंने अपना यह पुराणरूपी नया श्रीपर्वत खड़ा किया। जिस प्रकार उस महायान बौद्धधर्मकी चैत्यवादी शाखा व वज्रयान सम्प्रदायमें मनोरथोंकी सिद्धि श्रीपर्वतकी उपासनासे मानो जाती थी, उसी प्रकार जिनसेनने अपनी इस रचनाके विषयमें कहा कि 'जो कोई इस हरिवंशको भक्तिसे पढ़ेंगे उन्हें अल्प यत्नसे ही अपनी आकांक्षित कामनाओंको पूरी सिद्धि होगी, तथा धर्म, अर्थ और मोक्षका भी लाभ मिलेगा' (६६, ४६ )। ग्रन्थकर्ता स्वयं जिनेन्द्र के नाम मात्रको ही ग्रहों आदिको पीडाको दूर करनेका उपाय मानते थे (६६, ४१) और सिंहवाहिनी ( अम्बादेवी ) की उपासनासे सर्व विघ्नोंकी शान्ति होने में विश्वास रखते थे (६६, ४४)। भारतीय संस्कृति में जैनधर्मकी देन बड़ी विशाल और गम्भीर है. तथा इस संस्कृतिसे अन्य समानान्तर धाराओंसे ग्रहण किये हुए तत्त्वोंको मात्रा भी कम नहीं है। बड़ी आवश्यकता है कि. खोज-शोधपूर्वक इन बिखरी हुई कड़ियोंको जोड़ा जाये । इस कार्य के लिए पहले तो सुचारु रूपसे साहित्य-प्रकाशनकी ही बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि अभी तक भी विपुल जैन साहित्य प्रकाशित व अज्ञात पड़ा हुआ है । यह बात जैन शास्त्रभण्डारों और विशेषतः जयपुरके भण्डारोंकी प्रकाशित सूचियोंके अवलोकन मात्रसे सिद्ध हो जाती है । इस प्राचीन साहित्य के प्रकाशनके साथ ही साथ हिन्दी व अन्य प्रचलित भाषाओं में उसके शुद्ध अनुवादकी आवश्यकता है। हर्षकी बात है कि यह कार्य कुछ ग्रन्थमालाओं द्वारा योजनाबद्ध रूपसे हो रहा है, जिनमें मूर्तिदेवी ग्रन्यमालाका विशेष स्थान है। इस प्रकार प्रकाशित साहित्यको, और विशेषतः जैन पुराणोंकी ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दृष्टियोंसे आन्तरिक व तुलनात्मक गवेषणाकी नितान्त आवश्यकता है। प्रस्तुत ग्रन्थको साहित्याचार्य पं. पन्नालालजोने पाँच-छह प्रतियों के आधारसे संशोधित कर उसको अपने अनुवादसे अलंकृत किया है। उन्होंने अपनी प्रस्तावनामें ग्रन्थ सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण बातोंका उल्लेख व संकेत किया है। कुछ बातें ऐसी भी कही गयी हैं जिनपर और अधिक विचार व प्रमाणीकरणकी आवश्यकता थी। उदाहरणार्थ, उन्होंने कुवलयमालामें विमलकृत हरिवंशपुराण या चरितके उल्लेखका कथन किया है, किन्तु उन्होंने उस अंशके उस पाठको सर्वथा भुला दिया है जिसे कुवलयमालाके सम्पादक (डॉ. उपाध्ये ) ने अपने संस्करणमें स्वीकार किया है। उसमें 'हरिवंस' के स्थानपर हरिवरिसं' का पाठ होनेसे कुछ अन्य भी अर्थ निकाला जा सकता है। उन्होंने रविषेणाचार्यकृत पद्मपुराणका प्रस्तुत रचनामें तथा महापुराणमें इस रचनाका अनुकरण किये जानेका उल्लेख किया है, किन्तु इन महत्त्वपूर्ण मतोंका जितनी सावधानी और गम्भीरतासे प्रमाणीकरण वांछनीय था वह यहाँ नहीं पाया जाता । अन्य कुछ बातोंका संशोधन उपर्युक्त विवेचन द्वारा करनेका प्रयत्न किया गया है । इस ग्रन्थसहित पं. पन्नालालजीने जैन धर्मके तीन प्राचीन पुराणों-महापुराण, पद्मपुराण और हरिवंशपुराणका संस्करण और अनुवाद प्रस्तुत कर जैन साहित्यकी जो सेवा की है उसके लिए हम उनके बहुत अनुगृहीत हैं। ये तीनों ही सस्करण इनके पूर्व संस्करणोंसे अति अधिक शुद्ध और उपयोगी रूपमें प्रस्तुत किये गये हैं, जिससे साधारण पाठकों के अतिरिक्त इस विषयपर शोधकार्य करनेवालोंको वे बहत उपयोगी सिद्ध होंगे. ऐसी आशा है। -हीरालाल जैन, आ. ने. उपाध्ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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