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हरिवंशपुराणे
पन्नालाल सरस्वती भवन बम्बई तथा प्राच्य विद्या संशोधन मन्दिर मैसूरकी प्रतिसे भी पाठ मिलाकर शुद्ध पाठ स्थापित किये गये हैं । इस कार्य में हमें श्री पं. कुन्दनलालजी शास्त्री तथा पं. के. श्री भुजबली शास्त्री मूडबिद्री पर्याप्त सहयोग प्राप्त हुआ है ।
[२] हरिवंशपुराण
अभी तक मेरी दृष्टिमें तीन हरिवंशपुराण आये हैं । जिनमें दो संस्कृतमें हैं और एक अपभ्रंश भाषाका है | अपभ्रंश हरिवंशके रचयिता महाकवि रइधू हैं । इसकी प्रति मैंने कुरवाई ( सागर ) के जैन मन्दिरमें देखी थी । संस्कृत के दो हरिवंशों में एक हरिवंश ब्रह्मचारी जिनदासका बनाया हुआ है। इसकी प्रति भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट पूनामें विद्यमान है। रचना सरल और संक्षिप्त है । जिनसेनके हरिवंशमें जो यत्र-तत्र प्रसंगोपात्त अन्य वर्णन आये हैं उन्हें छोड़कर मात्र कथाभाग इसमें संगृहीत किया गया है । दूसरा हरिवंश आचार्य जिनसेनका है जिसका संस्करण पाठकों के हाथमें है ।
आचार्य जिनसेनका हरिवंश पुराण दिगम्बर-सम्प्रदायके कथासाहित्य में अपना प्रमुख स्थान रखता हैं । यह विषय विवेचनाकी अपेक्षा तो प्रमुख स्थान रखता ही है, प्राचीनताकी अपेक्षा भी संस्कृत कथाग्रन्थों में तीसरा ग्रन्थ ठहरता है । पहला रविषेणाचार्यका पद्मपुराण, दूसरा जटासिंहनन्दीका वरांगचरित और तीसरा यह जिनसेनका हरिवंश है । यद्यपि जिनसेनने अपने हरिवंश में महासेनकी सुलोचनाकथा तथा कुछ अन्यान्य ग्रन्थोंका भी उल्लेख किया है; परन्तु अभी तक अनुपलब्ध होने के कारण उनके विषयमें कुछ कहा नहीं जा सकता । हरिवंशके कर्ता जिनसेनने अपने ग्रन्थके प्रारम्भमें पार्श्वाभ्युदयके कर्ता जिनसेन स्वामीका स्मरण किया है। इसलिए इनका महापुराण हरिवंशसे पूर्ववर्ती होना चाहिए.... यह मान्यता उचित नहीं प्रतीत होती, क्योंकि जिस तरह जिनसेनने अपने हरिवंशपुराण में जिनसेन ( प्रथम ) का स्मरण करते हुए उनके पार्खाभ्युदयका उल्लेख किया है उस तरह महापुराणका उल्लेख नहीं किया, इससे विदित होता है कि हरिवंशकी रचनाके पूर्व तक जिनसेन ( प्रथम ) के महापुराणकी रचना नहीं हुई थी । महापुराण, जिनसेन स्वामी के जीवनकी अन्तिम रचना है इसीलिए तो वह उनके द्वारा पूर्ण नहीं हो सकी, उनके शिष्य गुणभद्राचार्य के द्वारा पूर्ण किया गया है । हरिवंश और महापुराण दोनोंको देखनेके बाद ऐसा लगता है कि महापुराणकारने हरिवंशको देखने के बाद उसकी रचना की है। हरिवंशपुराण में तीन लोकोंका, संगीतका तथा व्रतविधान आदिका जो बीच-बीचमें विस्तृत वर्णन किया गया है उससे कथा के सौन्दर्यकी हानि हुई है । इसलिए महापुराण में उन सबके अधिक विस्तारको छोड़कर प्रसंगोपात्त संक्षिप्त हो वर्णन किया गया है । काव्योचित भाषा तथा अलंकारकी विच्छित्ति भी हरिवंशपुराणकी अपेक्षा महापुराणमें अत्यन्त परिष्कृत है ।
[३] हरिवंशपुराणका आधार
जिस प्रकार जिनसेनके महापुराणका आधार कवि परमेष्ठीका 'वागर्थसंग्रह पुराण है उसी प्रकार हरिवंशका आधार भी कुछ न कुछ अवश्य रहा होगा । हरिवंशके कर्ता जिनसेनने प्रकृत ग्रन्थके अन्तिम सर्गमें भगवान् महावीरसे लेकर ६८३ वर्ष तककी और उसके बाद अपने समय तककी जो विस्तृत - अविच्छिन्न आचार्य-परम्परा दो है उससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि इनके गुरु कीर्तिपेण थे और सम्भवतया हरिवंशकी कथावस्तु उन्हें उनसे प्राप्त हुई होगी !
कुवलयमाला कर्ता उद्योतन सूरिने ( वि. सं. ८३५ ) अपनी कुवलयमाला में जिस तरह रविषेणके पद्मचरित और जटासिंह नन्दीके वरांगचरितकी स्तुति की है उसी तरह हरिवंशकी भी की है'। उन्होंने लिखा है कि मैं हजारों बुधजनोंके प्रिय, हरिवंशोत्पत्तिकारक, प्रथम वन्दनीय और विमलपद हरिवंशको वन्दना
१. बहजण सहस्स दइयं हरिवंसुप्पत्तिकारयं पढमं । वंदामि बंदियं पितु हरिवंसं चेत्र विमलपयं ॥३८॥
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