Book Title: Harivanshpuran
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 8
________________ हरिवंशपुराणे तमिल, कन्नड, हिन्दी आदि सभी प्राचीन भारतीय भाषाओं में पाये जाते हैं। इन विविध रचनाओं में वर्णनभेद भी पाया जाता है जिसका परस्पर तथा वैदिक पुराणोंके साथ तुलनात्मक अध्ययन अनुसन्धान एक रोचक और महत्त्वपूर्ण विषय है। जैन हरिवंशपुराणमें उक्त प्रकार विषय-प्रतिपादनके साथ-साथ हरिवंशकी एक शाखा यादवकुल और उसमें उत्पन्न हुए दो शलाकापुरुषोंका चरित्र विशेष रूपसे वणित हुआ है। एक बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ और दूसरे नवें नारायण कृष्ण । ये दोनों चचेरे भाई थे, जिनमें से एकने अपने विवाहके अवसरपर निमित्त पाकर संन्यास ले लिया; और दूसरेने कौरव-पाण्डव युद्धमें अपना बल-कौशल दिखलाया। एकने आध्यात्मिक उत्कर्षका आदर्श उपस्थित किया, और दूसरेने भौतिक लीलाका । एकने निवृत्ति-परायणताका मार्ग प्रशस्त किया, और दूसरेने प्रवृत्तिका । इसी प्रसंगसे हरिवंशपुराणमें महाभारतका कथानक सम्मिलित पाया जाता है । इस विषयकी प्राचीन संस्कृति, प्राकृत व अपभ्रंश रचनाएँ बहुसंख्यक हैं । हरिवंशपुराणके नामसे संस्कृतमें धर्मकीर्ति, श्रुतकीर्ति, सकलकीर्ति, जयसागर, जिनदास व मंगरस कृत, व पाण्डवपुराण नामसे श्रीभूषण, शुभचन्द्र, वादिचन्द्र, जयानन्द, विजयगणि, देवविजय, देवप्रभ, देवभद्र व शुभवर्धन कृत; तथा नेमिनाथ चरित्रके नामसे सूराचार्य, उदयप्रभ, कोतिराज; गुणविजय, हेमचन्द्र, भोजसागर, तिलकाचार्य, विक्रम, नरसिंह, हरिषेण, नेमिदत्त आदि कृत रचनाएँ ज्ञात हैं । प्राकृतमें रत्नप्रभ, गुणवल्लभ और गुणसागर द्वारा तथा अपभ्रंशमें स्वयंभू, धवल, यशःकीर्ति, श्रुतकीर्ति, हरिभद्र व रयधू द्वारा रचित पुराण व काव्य ज्ञात हो चुके हैं ( देखिए-वेलणकर कृत जिनरत्नकोश, तथा कोछड़ कृत अपभ्रंश साहित्य )। इन स्वतन्त्र रचनाओंके अतिरिक्त जिनसेन, गुणभद्र व हेमचन्द्र तथा पुष्पदन्त कृत संस्कृत व अपभ्रंश महापुराणोंमें भी यह कथानक वर्णित है एवं उसकी स्वतन्त्र प्राचीन प्रतियाँ भी पायी जाती हैं। हरिवंशपुराण, अरिष्टनेमि या नेमिचरित, पाण्डवपुराण व पाण्डवचरित आदि नामोंसे न जाने कितनी संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश रचनाएँ अभी भी अज्ञात रूपसे भण्डारोंमें पड़ी होना सम्भव है। प्राचीन हिन्दी व कन्नडमें रचित ग्रन्थ भी अनेक हैं । अतः प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादकने अपनी प्रस्तावनाके पृष्ठ दस पर प्रस्तुत रचनाके अतिरिक्त केवल एक संस्कृत और एक अपभ्रंश रचना मात्रका जो उल्लेख किया है, उससे इस विषयपर जैन साहित्य रचनाके सम्बन्धमें भ्रम नहीं होना चाहिए। पुराणोंको हिन्दू व जैन परम्पराओंमें अपने-अपने कालके विश्वकोश बनानेका प्रयत्न किया गया है। उनमें न केवल कथानक मात्र है, किन्तु प्रसंगानुसार धर्म व नीतिके अतिरिक्त नाना कलाओं और ज्ञानविज्ञानका भी परिचय संक्षेप या विस्तारसे करा दिया गया है। इस प्रवृत्तिका उद्देश्य यह दिखाई देता है कि एक ही पुराणका पाठ करनेवाला श्रद्धालु अपनी परम्परा सम्बन्धी सभी प्रकारकी जानकारी प्राप्त कर ले। प्रस्तुत हरिवंशपराण में भी यह प्रवृत्ति विशेष रूपसे पायी जाती है। यहाँ जो त्रैलोक्यका स्वरूप. महावीर तीर्थंकरका जीवनचरित्र, समवसरण व धर्मोपदेश तथा संगीत कला आदिका वर्णन किया गया है, वह उन-उन विषयोंका परिपूर्ण प्रकरण है और स्वतन्त्र रूपसे भी अध्ययन व प्रसारके योग्य है। वैदिक साहित्य, और विशेषतः पौराणिक रचनाओंके कर्तृत्व और कालके सम्बन्धमें बड़ा विवाद तथा अनिश्चय है । सौभाग्यसे जैन परम्पराओंमें कालनिर्देशकी प्रवृत्ति प्रायः अधिक स्पष्ट पायी जाती है। यहाँ प्रमुख पुराणोंके रचयिता और रचनाकालके स्पष्ट उल्लेख पाये जाते हैं। प्रस्तुत हरिवंशपुराणके कर्ताने तो अपना परिचय भले प्रकार दे दिया है कि वे पुन्नाट संघके थे, उनके गुरुका नाम कीर्तिषेण था और उन्होंने अपनी यह रचना शक संवत् ७०५ में समाप्त की थी। यही नहीं, किन्तु वे ही एक ऐसे महाकवि पाये जाते है, जिन्होंने भगवान् महावीरसे लगाकर ६८३ वर्षको सर्वमान्य गुरुपरम्पराके अतिरिक्त उसके आगे अपने समय तकको अन्यत्र कहीं न पायी जानेवाली गुर्वावली भी दी है। हरिवंशपुराणकारकी इस अद्वितीय ऐतिहासिक चेतनाका एक और भी महत्त्वपूर्ण प्रमाण उनकी रचनामें उपलभ्य है, जिसने तत्कालीन समस्त भारतके इतिहासकी जानकारीको प्रभावित किया है। उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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