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पापों का वर्गीकरण
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गये हैं। आपस्तम्ब ० ( १७|२१|१९ ) का कथन है कि वर्णित पाप कृत्यों के अतिरिक्त अन्य दुष्कृत्य अशुचिकर समझे जाने चाहिए। आपस्तम्ब ० ( १।९।२४।६- ९ ) ने अभिशस्त लोगों को इस प्रकार उल्लिखित किया है वह अभिशस्त है जो वेदज्ञ या सोमयज्ञ के लिए दीक्षित प्रथम दो वर्णों के (ब्राह्मण एवं क्षत्रिय) लोगों की हत्या करता है, जो साधारण ब्राह्मण ( जिसने वेदाध्ययन नहीं किया है या सोमयज्ञ के लिए दीक्षित नहीं हुआ है) की हत्या करता है, जो किसी ब्राह्मण के भ्रूण की हत्या करता है (भले ही भ्रूण का लिंग जाना न जा सके ) या जो आत्रेयी (रजस्वला) की हत्या करता है । वसिष्ठधर्मसूत्र ( १।१९-२३) ने पापियों को तीन कोटियों में बाँटा है; एनस्वी, महापातकी एवं उपपातकी एनस्वी वे ही हैं जिनका वर्णन आपस्तम्ब० । ( २।५।१२।२२ ) में हुआ है, अन्तर केवल इतना है कि वसिष्ठ ने आपस्तम्ब० के ब्रह्मोज्झ (वेदत्यागी, जो उसके अनुसार पतनीय है) को एनस्वी माना है । वसिष्ठ ० ( २०१४- १२ ) ने प्रत्येक एनस्वी के लिए विशिष्ट प्रायश्चित्त की व्यवस्था की है। एनस्वी साधारण पातकी को कहते हैं । वसिष्ठ० के अनुसार महापातक पाँच हैं—गुरु की शय्या को अपवित्र करना, सुरापान, भ्रूण ( विद्वान् ब्राह्मण) की हत्या, ब्राह्मण के हिरण्य का स्तेय ( सोने की चोरी) एवं पतित से संसर्ग । उपपातकी ये हैं -- जो वैदिक अग्निहोत्र छोड़ देता है, जो गुरु को ( अपने अपराध से ) कुपित करता है, नास्तिक ( जो नास्तिकों के यहाँ जीविका का अर्जन करता है) या जो सोम लता बेचता है। बौधायनधर्मसूत्र (२1१ ) ने पापों को पतनीय, उपपातक एवं अशुचिकर नामक कोटियों में विभाजित किया है। इनमें से प्रथम में ये आते हैं -- समुद्र-संयान, ब्राह्मण की सम्पत्ति या न्यास (धरोहर ) का अपहरण, भूम्यनृत (भूमि के विवादों में असत्य साक्ष्य देना ), सर्वपण्य-व्यवहार (सभी प्रकार की व्यापारिक वस्तुओं का व्यापार), शूद्रसेवा, शूद्राभिजनन ( शूद्रा से सन्तानोत्पत्ति ) । बौधायन ० ( २।१।६०-६१ ) के अनुसार उपपातक ये हैं-- अगम्यागमन ( वर्जित स्त्रियों के साथ सम्भोग ), स्त्रीगुरु - सखी (नारी गुरु अथवा आचार्या की सखी) के साथ सम्भोग या गुरुसखी ( पुरुष गुरु की सखी) के साथ सम्भोग या अपपात्र स्त्री या पतित स्त्री के साथ सम्भोग, भेषजकरण ( भेषजवृत्ति का पालन ), ग्रामयाजन ( ग्राम के लिए पुरोहित - कार्य ), गोपजीवन (अभिनय आदि से जीविका साधन ), नाट्याचार्यता ( नृत्य, गान या अभिनय की गुरु वृत्ति), गोमहिषीरक्षण एवं अन्य नीच वृत्तियाँ तथा कन्यादूषण (कन्या के साथ व्यभिचार ) । अशुचिकर पाप निम्न हैं—द्यूत (जुआ), अभिचार, अनाहिताग्नि अर्थात् जिसने अग्निहोत्र नहीं किया या त्याग दिया उसके द्वारा उच्छवृत्ति (खेत में गिरे अन्न के दाने चुनकर खाना), वेदाध्ययन के उपरान्त भैक्ष्यचर्या (भिक्षा- वृत्ति), वेदाध्ययन के उपरान्त घर पर लौटे हुए व्यक्ति का पुनरध्ययन के लिए गुरुकुल में चार मास से अधिक निवास, जिसने अध्ययन समाप्त कर लिया हो उसको पढ़ाना तथा नक्षत्र - निर्देश (फलित ज्योतिष द्वारा जीवन वृत्ति या जीविका साधन ) । गौतम (२१।१-३ ) ने पतनीयों के अन्तर्गत पञ्चमहापातकों एवं आप ० ( १।७।२१।९-११ ) तथा वसिष्ठ० ( ११२३) द्वारा वर्णित पापों को सम्मिलित कर दिया है और कुछ अन्य पापों को भी जोड़ दिया है, यथा-- पतनीयों के अपराधियों का त्याग न करना, निरपराध सम्बन्धियों का परित्याग एवं जातिच्युत कराने के लिए किसी व्यक्ति को दुष्कृत्य करने के लिए प्रेरित
करना ।
१२. पापों की ये सूचियां केवल ब्राह्मण एवं क्षत्रियों से सम्बन्धित हैं, क्योंकि गाय आदि का चराना या व्यापार करना वंश्यों के लिए किसी प्रकार वर्जित नहीं हो सकता था, क्योंकि ये उनकी विशिष्ट वृत्तियाँ रही हैं। देखिए आप ० ० सू० (२/५1१०1७), गौतम ( १०/५०), मनु (१०।७९) एवं याज्ञ० ( १।११९ ) । वैद्यक कार्य या नृत्य - शिक्षणवृत्ति अथवा अभिनय-वृत्ति ब्राह्मणों के लिए श्राद्धकर्म के लिए अयोग्य ठहरायी गयी है। देखिए गौतम (१५।१५-१६) जहाँ ऐसे ब्राह्मणों की गणना की गयी है जो श्राद्ध भोजन आदि के लिए अयोग्य माने गये हैं।
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