________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रवचन- १
कहिए, अपरम ही रहना है ? परम - आत्मा बनना है या नहीं ? बनना तो है, परन्तु शक्ति नहीं है, क्यों? शक्ति कहाँ से आती है ? आकाश से शक्ति गिरती है क्या ? परमात्मभक्ति में से शक्ति प्राप्त होती है । इसलिए, परमात्मभक्ति में लीन बनो ।
एक असाधारण विशेषता :
ग्रन्थकार ने 'परमात्मा' को नमस्कार किया, कोई नाम नहीं लिया... न भगवान ऋषभदेव का नाम लिया, न वर्द्धमान स्वामी का ! नाम कोई भी हो, होने चाहिए परमात्मा ! सर्वज्ञ और वीतराग होने चाहिए! अज्ञानता और रागद्वेष से संपूर्ण मुक्त-ऐसे परमात्मा को प्रणाम किया। जैनधर्म की यही असाधारण विशेषता है! यदि आप और हम इस असाधारण विशेषताको समझ जायें तो आज भी 'जैनं जयति शासनम्' हो सकता है ।
ग्रन्थकार की विनम्रता :
महान तार्किक एवं दिग्गज विद्वान आचार्य की विनम्रता देखो, वे कहते हैं : ‘मैंने यह ‘धर्मबिन्दु' ग्रन्थ मेरी मतिकल्पना से नहीं लिखा है, श्रुतसमुद्र से तत्त्वरत्नों को लेकर इस ग्रन्थ की रचना की है ।'
अति महत्त्वपूर्ण है यह बात ।
तीर्थंकर परमात्मा महावीरदेव ने जो श्रुतगंगा - ज्ञानगंगा बहाई, उसी पवित्र ज्ञानगंगा में से कुछ बूंदें ले लीं और यह ग्रन्थ बन गया ! श्रुतसमुद्र अगाध है...दुर्बोध है...अल्प बुद्धिवाले उस समुद्र में कूद नहीं सकते और उसमें से मोती प्राप्त नहीं कर सकते । 'नय', 'निक्षेप', 'भंग', 'गम', ‘पर्याय', ‘हेतु' इत्यादि ऐसे गहन और गंभीर विषय हैं कि सामान्य बुद्धिवाला समझ ही नहीं सके । समझे हो आप? 'नय' किसको कहते हैं ? ‘द्रव्य-गुण-पर्याय' किसको कहते हैं ? बता सकोगे ? समझने की बुद्धि नहीं और तमन्ना भी नहीं! अरे, तत्त्वमार्ग नहीं समझ सको, का ज्ञान तो प्राप्त कर सकते हो न ?
परन्तु आचारमार्ग
बिन्दु में सिन्धु :
‘धर्मबिन्दु' ग्रन्थ आचारमार्ग का ग्रन्थ है । मानवजीवन क्रमशः और कैसे उन्नत और पवित्र बनाया जा सके- इसका क्रमिक मार्गदर्शन इस ग्रन्थ में दिया गया है। ग्रन्थकार ने श्रुतसागर में से तत्त्वों को लेकर, सरल और सुबोध सूत्रों
For Private And Personal Use Only