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प्रवचन- १
भावमंगल :
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ग्रंथकार एक निर्ग्रथ जैनाचार्य थे। उनको अपनी आचारमर्यादा में रहना था, इसलिए ‘द्रव्यमंगल' वे नहीं कर सकते थे, उन्होंने 'भावमंगल' किया। परमात्मा को प्रणाम ही भावमंगल है | परमात्म-प्रणाम में यह अपूर्व शक्ति है कि सर्व विघ्नों का समूल उच्छेद कर दे। यह है आध्यात्मिक शक्ति । अब सुनिए, ग्रन्थकार मंगल कर रहे हैं :
‘प्रणम्य परमात्मानं समुद्धृत्य श्रुतार्णवात् । धर्मबिन्दुं प्रवक्ष्यामि तोयबिन्दुमिवोदधेः ।।
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धर्मशास्त्रों की रचना करनेवाले ऋषि महर्षियों की यह मान्यता है : 'शास्त्रमूलं मङ्गलम्' । धर्मशास्त्र का प्रारम्भ मंगल से ही होना चाहिए। इस विधान में दृष्टि एक ही है : विघ्नों का नाश ! विघ्न उपस्थित होने की आशंका है, इसलिए पहले से ही उसका उपाय कर लिया! आपको लगता है कि मार्ग में डाकू मिल सकते हैं, आपको जाना अनिवार्य है, आप सुरक्षा का प्रबन्ध करके ही चलेंगे न? फिर आप निश्चिंत बनकर चलते रहेंगे! ग्रन्थकार महात्मा भी वैसा ही कर रहे हैं । विघ्न आएँ ही नहीं, यदि आ जायें तो ग्रन्थरचना के कार्य में रुकावट न हो, इसलिए भावमंगल किया । परमात्मा को प्रणाम किया ।
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प्रश्न : कार्य के प्रारंभ में ही, भविष्यकालीन विघ्नों की आशंका करना क्या मानसिक कमजोरी नहीं है ?
उत्तर : कोई भी कार्य करने से पूर्व जैसे कार्यपद्धति का निर्णय करना चाहिए, वैसे ही उस कार्य में क्या-क्या बाधाएँ - रुकावटें आ सकती हैं, उसका भी विचार करना चाहिए । यह विचार करना मानसिक कमजोरी नहीं है, परन्तु सावधानी है, बुद्धिमत्ता है। संभवित विघ्नों की कल्पना करके उन विघ्नों का उपाय करना भय अथवा कमजोरी का परिचायक नहीं है, परन्तु कार्यसिद्धि अथवा सफलता का द्योतक है।
आपने एक अच्छा परमार्थ- परोपकार का कार्य शुरू किया, आप कार्य करते चलें और आपकी कल्पना से भी परे कोई विघ्न - अन्तराय उपस्थित हुआ... क्या होगा आपको! यदि आप शक्तिशाली हैं तो उस विघ्न को मिटा देने का भरसक प्रयत्न करेंगे...इससे उस कार्य की सिद्धि में विलम्ब तो होगा न? यदि आपका प्रयत्न असफल रहा तो वह कार्य अधूरा ही रह जायगा न? इसलिए पवित्र
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