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प्रवचन- १
७
कार्य करने से पूर्व ही उस कार्य में कोई विघ्न नहीं आये, वैसा प्रबन्ध कर लेना
चाहिए। वह प्रबन्ध है भावमंगल !
विघ्नों का नाश करना जरूरी :
विघ्नों का विनाश करने का स्वाधीन उपाय है यह भावमंगल ! परमात्मा को प्रणाम करना, स्वाधीन उपाय है... न किसी की पराधीनता, न किसी की परतंत्रता! परमात्मा को प्रणाम करने में हम स्वाधीन हैं, किसी की आज्ञा लेने की, - इजाजत लेने की आवश्यकता नहीं! अरे, मंदिर में भी जाना अनिवार्य नहीं! अपने मन के मंदिर में उस वीतराग अरिहंत परमात्मा की पद्मासनस्थ अवस्था की धारणा करो, चमड़े की आँखें बंद करो और मन की आँखें खोलकर उन परमात्मा की प्रशमरस भरपूर आँखें देखो, उनके चरणों में झुक जाओ, उनकी स्तुति करो, प्रार्थना करो, ध्यान धरो... बस हो गया मंगल ! भावमंगल हो गया! इस भावमंगल का असर पड़ेगा उन आनेवाले विघ्नों पर ! वे आयेंगे ही नहीं, यदि आने का साहस किया तो बेचारे, आपके पैरों के नीचे कुचले जायेंगे!
'परम' एवं 'अपरम' :
परमात्मा को प्रणाम करने से पूर्व, परमात्मा को जरा पहचानो तो सही ! पहचानते हो परमात्मा को ? आत्मा दो प्रकार की होती है : परम और अपरम | सर्व कर्ममल का विलय हो जाने से प्राप्त विशुद्ध ज्ञान - प्रकाश में जिन्होंने सकल विश्व को 'लोक' और 'अलोक' को देखा है, स्वयं पूर्ण निष्काम और पूर्ण अपरिग्रही होने पर भी, देव आठ प्रकार की दिव्य शोभा - अष्ट महाप्रतिहार्य की शोभा, उनके चारों ओर प्रस्थापित करते हैं । सब जीव अपनी-अपनी भाषा में समझ जायें वैसी भाषा में जो बोलते हैं और जो उनकी वाणी सुनता है, उसके मन के तमाम संशय दूर हो जाते हैं । वे जहाँ-जहाँ पदार्पण करते हैं वहाँ -वहाँ जीवों को सुख-शान्ति प्राप्त होती है। जिनको कोई ईश्वर कहता है, कोई ब्रह्मा कहता है, कोई शंकर कहता है ... भिन्न भिन्न नामों से जो पुकारे जाते हैं - वे हैं अरिहन्त परमात्मा ! परम+आत्मा=परमात्मा ।
इनके अलावा सब ‘अपरम' आत्मा! अपने 'अपरम' आत्मा हैं ! अपरम से परम बनने की आराधना ही धर्म-आराधना है । अपरम आत्मा परम आत्मा को प्रणाम करे, उनकी स्तुति - प्रार्थना करे, उनका ध्यान धरे, उनके बताए हुए मार्ग पर चलती रहे तो अपरम परम बन जाय !!
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