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इस संस्करण के संदर्भ में
तेइस उन्होंने और अधिक सुन्दर रास्ता बतलाया कि महाराष्ट्र के सांगली जिले में सांगली के पास ही वालवा(इस्लामपुर) नाम का एक गाँव(तहसील) है, जहाँ अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त एक चित्रकार रहता है पोतदार, हमने उन्हीं से करवाई है, उसके पास कम्प्यूटर में वे तस्वीरें सुरक्षित भी हैं। हमने पोतदार साहब का टेलीफोन नम्बर ढूँढकर उनसे चर्चा की। उन्होंने कहा कि आ जाओ। हम गये और उन्होंने उचित द्रव्य लेकर समाधि-काल के सत्ताईस फोटो हमें दे दिये।
एक तरफ खुशी हुई, वहीं दूसरी तरफ निराशा कि इतनी सी फोटो से क्या होगा? जो साध्य सिद्ध करना है, वह तो सिद्ध नहीं ही होगा।
इसी बीच एक दिन रास्ते से गुजरते हुए अचानक ही नादणी मठ(महा.) जाना हो गया। वहाँ स्वस्ति श्री भट्टारक जिनसेन स्वामी विराजते हैं।
हम दोनों का पूर्व परिचय नहीं था, किन्तु उन्होंने नाम सुन रखा था। हमारी एक पुस्तक क्या आर्यिका मातायें पूज्य हैं ?' का मराठी अनुवाद करवाकर उन्होंने उसे उनके यहाँ से प्रकाशित मासिक पत्रिका में क्रमवार मुद्रित करवाया था। यह परिचय काम कर गया। हमने सहज ही चर्चा में आचार्यश्री के समाधिकाल की तस्वीरों के विषय को छेड़ दिया। यहाँ हमारा विषय छेड़ना था कि वहाँ भट्टारक जी उठे और तत्काल कमरे में जाकर सत्ताईस फोटो का एलबम लाकर हमारे हाथों में रख दिया और कहा कि ये तस्वीरें हमारे आराध्य-देव की हैं, तुम आये हो इसलिये दे रहा हूँ, अन्यथा नहीं देता, इसे जैसे ले जा रहे हो, वैसे ही लौटा देना। मैंने स्वामीजी को इच्छामि किया व लौट आया॥
इतना होने के पश्चात् भी कार्य सिद्ध नहीं हुआ, क्योंकि आधी तस्वीरें वे ही थीं, जो कि हमें पोतदार साहब से मिल चुकी थी। फिर भी हमने हार नहीं मानी। हार न मानने का नतीजा यह हुआ कि कुछ तस्वीरें इन्दौर में ही उपलब्ध हो गई। ____जो नहीं मिल पाई उनके लिये उपाय करने की सोची॥ उपाय के रूप में १९५५ में छपे
जैन गज़ट के आचार्य शांतिसागर विशेषांक में छपी तस्वीरों को हमने इंदौर के आधुनिक तकनिक से फोटो प्रोसेसिंग करने हेतु प्रसिद्ध फर्म व्ही. जी. ग्राफिक्स को बतलाया। उन्होंने तस्वीरें देखी, एक्सपर्ट से चर्चा की व कहा कि सभी तस्वीरें तो नहीं, किंतु कुछ तस्वीरें जो कि इस संस्करण में मुद्रित हैं, उसकी अपेक्षा उन्नीस बन सकती हैं।। हमने सोचा यही सही। इस प्रकार इस संकलन की ८ तस्वीरों का समायोजन हुआ। इन ८ में से २ तस्वीरें ऐतिहासिक तस्वीरें थी, पहली आचार्य श्री द्वारा दी गई अंतिम क्षुल्लक दीक्षा की, जिसमें दीक्षित पात्र था आचार्य श्री की सतत सेवा में रत ब्र. भरमप्पा व सहयोगी थे क्षुल्लक श्री सुमतिसागरजी व दूसरी तस्वीर थी आचार्य श्री की समाधि के तुरंत पश्चात् अर्थात् १८ सितम्बर को ही आयोजित श्रद्धांजलि सभा में अपने समस्त पूर्व नियोजित अनुबंधों व कार्यक्रमों को निरस्त
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