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शुद्धात्माओं के मनन, स्मरण, चितवन से, शुद्धत्व की प्राप्ती होती है।
अनुज्ञा से पीछी कमंडलु उठाया और विना किसी संकट को पर्वाह किए निर्भय होकर सरकारी प्रतिबन्धित स्थान में विहार किया। सरकार के बड़े अधिकारी ने आकर जव महाराज को रोकना चाहा तो वे महाराज की बातों से, तपश्चर्या से और विद्वत्ता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसी समय दिगम्बर जैन साधुओ के विहार के प्रतिवन्ध को हटा दिया और इस तरह मुनिराज श्री चन्द्र सागर जी के प्रभाव से धर्म की बड़ी भारी विजय हुई । सारे भारतवर्ष को दिगम्बर जैन समाज में इस विजय पर बड़ा भारी हर्प छा गया।।
आगम चक्खु साहू मनुष्य किसी भी वस्तु को ग्रहण करते समय अपनी आंखों से देखकर उसको अपने लिए ठीक समझने पर ग्रहण करता है। किन्तु ऐसा करते समय मनुष्य अपनी आखों से घाखा भी खा सकता है। अतः दिगम्बर साधु आगम को अपनी आंख बनाकर उससे वस्तु को ग्रहण करता है। रत्नत्रय, महाव्रत और मोक्ष मार्ग की विशुद्धता के लिए आगम ही उसकी आंखे होतो है । आगम के प्रकाश में निरन्तर चलते रहने के कारण वह कभी प्रात्म वंचित नहीं होता। मुनिराज चंद्रसागर जी ऐसे ही एक महासाधु थे जो कभी लोकपणा, यशलिप्सा, आत्म प्रशंसा, परनिंदा, शरीर सुख,उपसर्ग या परीपह भय आदि के व्यामोह मे आगमाज्ञा के विरुद्ध पाव नही रखते थे। लोगों से वाहवाही लूटने के लिए या अपनी पादपूजा करने के लिए उन्होंने कभी भी किसी को खुश रखने की दुनीति का अवलवन नही लिया। आगम का उनका पाय था और उसकी रक्षा के लिए उन्होने बड़ी से बड़ी शक्ति के विरोध या असन्तोप की परवाह न कर रत्नत्रय धर्म का पालन किया । उनका सम्यक्त्व सुमेरु पर्वत की तरह अचल था। आगम जान समुद्र की तरह गंभीर, विपद और तलस्पर्शी था एवं चारित्रं स्फटिक की तरह अत्यन्त विशुद्ध और निर्मल था। उनके आगम ज्ञान के आगे बड़े २ शास्त्री न्यायतीर्य विद्वान भी निरुत्तर हो जाते थे।
इन्दौर के बहिष्कार में बड़ी से बड़ी शक्ति भी उनको आगम मार्ग से विचलित नहीं कर सकी। वड़वानी प्रतिष्ठोत्सव पर भयंकर ज्वर की स्थिति में चलने की शक्ति न होने पर भी अपने दिये हुए वचन का पालन करने के लिए प्राणो का मोह न करते हुए समय पर पहुंचे। बड़वानी पहुंच कर उन्होने अत्यंत निराकुल परिणामों से सल्लेखना धारण कर समाधि मरण किया। प्राणों का मोल देकर भी सत्य महानत की रक्षा हुई इसका उनकी आत्मा में पूर्ण संतोप था।
निरपेक्ष अयाचक योगी आगम का अगाध ज्ञान, प्रभावी वक्तृत्व एवं सुन्दर लेखन की शक्ति होते हुए भी अपनी प्रसिद्धि के व्यामोह में उन्होंने कभी कोई नया ग्रन्थ या साहित्य निर्माण नही किया वे कहते थे कि पूर्वाचार्यों ने ही द्वादशाग पर बड़े से बड़े विद्वतापूर्ण ग्रन्थो की और टीकाओं की इतनी रचना की है कि जिनके अध्ययन में सैकड़ों वर्ष की आयु भी पूरी नहीं पड़ सकती तब उसके बाहर और उससे अधिक सुन्दर आज का बड़े से बड़ा विद्वान भी क्या लिख सकता है। यदि लिखे भी और कहीं नासमझ, छद्मस्थता या भ्रांतिवश कुछ थोड़ा भी विपरीत लिखा गया तो [१४]