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जिसका आचरण शुद्ध है वही व्यक्ति आदशं बनता है।
और निर्भय रहे। उन्होंने कभी भी किसी को भी अपने वहिप्कार करने वालो के विरोध में जरा भी नही उकसाया।
इन्दौर के चातुर्मास के बाद मुनि वहिष्कार के कारण समाज में व्याप्त तीन क्षोभ और असतोष को दूर करने को दृष्टि से जव कुछ समाज के महामान्य श्रीमंत और विद्वान नेता पावागढ मे परमपूज्यश्री१०८ आचार्य शाति सागर जी महाराज के पास बहिष्कार के संबंध में उनका आदेश लेने गये तो सभी के द्वारा प्रार्थना करने पर पूज्य आचार्य महाराज ने अत्यन्त गम्भीर होकर यह स्पष्ट आदेश दिया कि-'मुनि चद्रमागर का बहिष्कार अन्याय, अनुचित अनधिकार
और शास्त्र विरुद्ध है। इस स्पष्ट आदेश गे बहिष्कार निप्प्रभ हो गया। समाज में व्याप्त क्षोभ दूर हो गया और मुनि चंद्रसागर जी का माधुत्व प्रवर अग्नि में तप्त सुवर्ग की तरह निखर उठा।
अत्यन्त निष्काय निर्वैर साधु कुछ लोग मनिराज चंद्रसागर जी महागज पर अत्यन्न क्रोधी और कपायवान होने का आरोप करते थे। किन्तु उनका यह आरोप पय विद्वेप के कारण सर्वथा असत्य था। वस्तुत. श्री चन्द्रसागर जी महाराज आगम विरोधी बात को सहन न हो सकने के कारण तीन शब्दों में विरोध करते थे और लोगो को आगम मार्ग पर लगाने के लिए किसी के भी रोप तोप की पर्वाह न कर कड़ाई से उपदेश देते थे। गरज यह कि व्यक्तिने वह आगम की रक्षा को अधिक महत्व देते थे। तथापि उनके मन में अपने विरोधी के प्रति भी कोई प या बैर नहीं होता था। वस्तुतः शुभ मित्र के प्रति समवृत्ति रखने को जो क्षमता श्री चन्द्रसागर जी मे थी वह अन्यत्र बहुत कम देखने को मिलतो है नीचे की घटना से यह बात बिलबुल स्पष्ट हो जायेगी।
पूज्य श्री चन्द्रसागर जी महाराज विहार करते हुए जब नासिक (महाराष्ट्र) में आये तव मैं भी उनके दर्शनार्थ नादगाव से नासिक चला गया । महाराज श्री मदिर में दोपहर के समय धर्मोपदेश दे रहे थे। तब मैं वहा पहुंच गया। धर्मोपदेश के अनन्तर महाराज श्री ने मुझे देखतेही पहला प्रश्न किया कि-'तुम वकालत कब से करने लगे ? मैं महाराज श्री के प्रश्न पर अचम्भित होकर कहने लगा कि-'महाराज जब मैं वकील नही नो वकालत कैसे कर सकता हूं।" तब महाराज ने कहा कि-तुमने हमारे वहिष्कार को लेकर सर सेठ हकमचन्द जी के विरोध में लेख क्यो दिया? क्या हमने तुमको कहा था कि तुम हमारे बहिष्कार का प्रतिकार करो'। मैने कहा 'महाराज' यद्यपि आपने नही कहा तथापि धर्मायतनो पर यदि कोई उपसर्ग करे तो उसे कोई भी धर्म भक्त व्यक्ति कैसे चुपचाप देख सकता है ? हमने तो अपना कर्तव्य पालन किया।" तब भी महाराज ने अत्यन्त गांत और गम्भीर होकर कहा कि- भाई सरसेठ हुकमनद जी ने या और किसी ने भी हमारा बहिष्कार किया है तो करने दो, हमारा चारित्र यदि निर्मल है तो हमे उसको कोई चिन्ता नही । जब तक हमारे उपसर्ग या परिषह को सहन करने में हम [१२]