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आत्म समत्व और वीतरागत्य फी भावना से प्राणी धर्म को सोतन छाया में बैठ गाना है।
समय है तो तुम लोगो को हमारे बीच मे पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। मर गठ हुक्म चन्द्र जी समाज मे एक प्रभावशाली श्रीमन्त नेता है। सरकार पर उनका बडा गारो भार है। अतः उनके प्रभाव से धर्म पर आई हुई आपत्तिया सहज दूर हो सकती है। समाज में रह कर तुम लोगो को उनमे काम लेना पड़ता है । मदि तुम उनका विरोध करोगे तो फिर वे तुम्हारा साथ केसे देगे । इसलिए तुमको उन्हे नाराज नही करना चाहिए। हमारा विरोध हम सहन कर लेंगे। वह हमारा धर्म है। तुम लोगो को हमारी चिन्ता नही करनी चाहिए।'
कितने स्थितप्रज्ञ वीतराग विचार है ये। जिसको अपने विरोध में भी कोई विगाद गा वैर नही । न अपने विरोधी के विरोध से कोई हपं । इससे अधिक निष्कपायता, निबेरता का और शत्र मित्रता मे समभाव का उदाहरण और क्या हो सकता है । जिमको अपने विरोध में भी विरोध नहीं दीखता, जो उस स्थिति मे भी अत्यन्त शान्त, धीर और गम्भीर रह सकता है। वास्तव मे सच्ची साधुता के दर्शन वही होते है। हम पूज्य श्री चन्द्र सागर जी को उस वोतराग साधु वृत्ति को देखकर उसी समय श्रद्धा से उनके पावन चरणो मे नत हो गये।
सारा मरुस्थल धर्म स्थल में परिवर्तित हो गया जिस मरुस्थल में कुये बहुत गहरे है, पानी बहुत दूर-दूर से जूते पहने हुये मजदूरों मे मगवा कर खान-पान करना पड़ता है, फिर जो श्रीमन्त लोग भोगोपभोग में सुखासीन, सयमहीन जीवन विताते है-ऐसे असुविधाजनक स्थानो मे मरुस्थल के गाव-गाव और नगर-नगर में विहार कर बडे-बड़े श्रीमन्तो में और साधारण श्रावको मे भी अपनी अमोघ प्रभावी वाणी, मागम तल स्पर्शी जान एव निर्मल' चारित्र के प्रभाव से वास्तविक जैनत्व के भाव जागृत कर उनमे शुद्ध खान-पान की प्रवत्ति जागृत करदी-यह पूज्य श्री चन्द्र सागर जी के ही विशुद्ध तप का प्रभाव था कि उनका जनता पर जादू का सा असर पडता जाता था। जो मरुस्थल पथ की खोटी भावना से अभिभूत था उनमे आगम मार्ग की ज्योति प्रज्वलित करदी । सारा माम्बल आगम मार्गी बन कर धर्म स्थल बन गया। निरन्तर भोगो और व्यसनो में लीन रहने वाले बडे-बडे डाक्टरो; सरकारी अधिकारियों, न्यायाधीशो, उद्योगपतियो और श्रीमन्ती में जिनने प्रतिमा रूप सयम और त्याग की प्रवृत्ति पैदा करदी. यह वास्तव में मुनि चन्द्र सागर जी के द्वारा की गई धर्म को एक महान आश्चर्यकारी क्राति थी। आज भी सारा मरुस्थल उन्हें एक महान कठोर तपस्वी सच्चा महाव्रती महा साधु के रूप में श्रद्धा से याद करता है।
दिगम्बरत्व का जागृत निर्भय प्रहरी भारत की राजधानी देहली में पहली बार आचार्य शान्ति मागर जी महाराज का विशाल संघ सहित चातुर्मास दिगम्बर जैन समाज ने कराया। लेकिन उस समय की अयंज सरकार ने देहली के कुछ सरकारी स्थानो मे नग्न विहार पर प्रतिबन्ध की गर्न पर दिगम्बर साधुओ को देहली में लाने की अनुमति दी थी। देहली में आने पर जब नघ को नग्न बिहार के प्रतिवन्ध की वात मालूम हुई तो सघ में सबसे पहले श्री मुनि चन्द्रमागरजी ही थे जिन्होंने स्वय इस दिगम्वरत्व पर डाले गये प्रतिवन्ध के आघात को दूर करने के लिए आगार्य महाराजगी