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5 वर्तमान युगका एक सच्चा का आगमनिष्ठ महासाधु
-श्री तेजपाल काला, संपादक 'जैनदर्शन' नांदगाँवदिगम्बर जैन साधुओ को दृष्टि से वर्तमान-युग का प्रारम्भ स्व० परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ती श्री १०८ आचार्य श्रेष्ठ शांतिसागर जी महाराज मे प्रान्भ होता है। इससे पहले लगभग तीनसौ चारसी वो तक दिगम्बर जैन साधुओ का प्राय. अभावसा था। दक्षिण में कही कही जो कुछ थोड़े से उगुलियो पर गिनने लायक साधु थे भी तो उनमे आगम के अनुकूल प्रवृत्तियों मे शिथिलता आ गई थी। वे प्रायः शहर से दूर एकान्त गुफाओं में रहकर ध्यानाध्ययन करते थे। साधारण जनता को उनको साधु चर्या और विहारादिक ने कोई धर्मलाभ नहीं हाता था। देसी स्थिति में सच्चे आगमनिष्ठ साधुओ के दर्शन दुर्लभ हो गये थे । इमीलिए इस साधु दर्शन की दुर्लभता की मनोव्यथा-महाकवि भूधरदासजी जैसे साधु भक्त विद्वान को- "कर जोर 'भूधर' बीनवे कव मिलहि वे मुनिराज । यह आम मनको कत्र फले मेरे सरे सगरे काज'। इन शब्दो में व्यक्त करनी पड़ी।
किन्तु गत लगभग पचास वर्ष से मुनि दर्शन को इस दुर्लभता का, स्व० परम पूज्य १०८ आचार्य प्रवर श्री शाति सागर जी जैसे एक महा तपस्वी साधु के उदय से अन्त हो गया। अब तो सौभाग्य से भारतवर्ष में प्रायः सभी प्रदेशो में शताधिक से भी अधिक दिगम्बर जैन साधुओ का विहार निरवाध रूप से हो रहा है। जन साधारण उनके आहार, विहार चर्या और धर्मोपदेश से लाभ उठा रहा है। जैन धर्म का बड़ा भारी उद्योत हो रहा है। वास्तव में परम पूज्य आचार्य शातिसागर जी तो स्वय ही एक महान रत्नत्रय स्वरूप आदर्श निर्दोप कठोर तपस्विता को धारण करने वाले असाधारण साधु थे, किन्तु उनने जो शिष्य प्रशिष्य अपने समय में तैयार किए और उनके बाद भी उनकी पट्ट परम्परा में जो शिष्य आज भी है वे भी निश्चय ही आज गुरु की तरह ही निरपेक्ष निर्मोह वृत्तिके आदर्श साधु है । रत्नत्रय को निर्मलता के लिए जो निरपेक्षता निर्भयता, स्वाधीनता, आडम्बर हीनता, नि.सगता, वीतरागता आदि साधुजनोचित गुण आचार्य शाति सागर जी की शिष्य परम्परा में देखकर मन को सतोष होता है वह अन्यत्र नहीं होता।
तयापि गत पचास वर्ष के साधु जीवन की आदर्शता का जव सूक्ष्म अवलोकन किया जाता है तो यह नि सशय कहना पड़ता है कि श्रमण सस्कृति के एक श्रेष्ठ साधक लोकोत्तर साधु तपस्वी आचार्य श्री शातिसागर जी ने जिन निर्मल रत्नत्रय के धारक महान तेजस्वी
आदर्श प्रभावी शिष्य रत्नों का प्रसव किया, उनमें स्व० परम पूज्य महा विद्वान, अत्यन्त कठोर [१०]