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चक्रदत्तः।
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लारका बहना, मिचलाईका होना, हृदयका भारी होना औषधके ठीक परिपक्व हो जानेपर वायुकी अनुलोमता, अरुचि, तन्द्रा, आलस्य, भोजनका न पचना, मुखका स्वाद स्वास्थ्य, भूख, प्यास, मनकी प्रसन्नता, शरीरका हलकापन, खराब रहना, शरीरका भारीपन, भूखका न लगना, पेशाबका | इंद्रियोंको अपने विषय ग्रहण करने में उत्साह तथा उद्गारकी शुद्धि अधिक आना, जकडाहट, ज्वरके वेगका आधिक्य "आम ज्वरके" होती है ॥ ५८ ॥ लक्षण हैं । ऐसी अवस्थामें औषध न देना चाहिये । औषध | आमदोषयुक्त ज्वरको अधिक बढ़ा देता है ॥ ५१-५३ ॥
अजीर्णौषधलक्षणम्। निरामज्वरलक्षणम् ।
कुमो दाहोऽङ्गसंदनं भ्रमो मूर्छा शिरोरुजा।
अरतिर्बलहानिश्च सावशेषोषधाकृतिः॥ ५९॥ मृदी ज्वरे लघौ देहे प्रचलेषु मलेषु च। ___ औषधके ठीक परिपक्क न होनेपर ग्लानि, जलन, शरीरपकं दोषं विजानीयाज्ज्वरे देयं तदौषधम् ॥५४॥ शैथिल्य, चक्कर, मूर्छा, शिरमें दर्द, बेचैनी तथा बलकी क्षीणता जब ज्वर हलका हो गया हो, शरीर हलका हो गया हो. होती है ॥ ५९॥ मलका निःसरण होता हो, उस समय दोष परिपक्व समझना अजीर्णान्नौषधयोरौषधान्नसेवने दोषाः। चाहिये और तभी औषध देना चाहिये ॥ ५४॥
औषधशेषे भुक्तं पीतं तथौषधं सशेषेऽन्ने । सर्वज्वरपाचनकषायः।
न करोति गदोपशमं प्रकोपयत्यन्यरोगांश्च ॥६०॥ नागरं देवकाष्ठं च धान्यकं बृहतीद्वयम् ।
औषधके विना पचे भोजन करना तथा अन्नके विना पचे
औषध सेवन करना:रोगको भी शान्त नहीं करता तथा अन्य दद्यात्पाचन पूर्व ज्वरिताय ज्वरापहम् ॥ ५५॥
रोगोंको भी उत्पन्न कर देता है ॥ ६॥ सोंठ, देवदारु, धनियां, छोटी कटेरी तथा बडी कटेरीका क्वाथ ज्वरमें प्रथम पाचनके लिये देना चाहिये ॥५५॥
. भोजनावृतभेषजगुणाः। औषधनिषेधः।
शीघ्रं विपाकमुपयाति बलं न हिंस्या
दन्नावृतं नच मुहुर्वदनानिरेति । पीताम्बुलंधितः क्षीणोऽजीर्णी भुक्तः पिपासितः ।।
प्राग्भुक्तसेवितमथौषधमेतदेव न पिबेदीषधं जन्तुः संशोधनमथेतरत् ॥ ५६ ॥
दद्याच्च वृद्धशिशुभीरुवराङ्गनाभ्यः ॥ ६१ ॥ जिसने जल पी लिया है अथवा लंघन किया है, जो क्षीण
ण भोजनके अव्यवहितपूर्व औषध खानेसे शीघ्र पच जाती तथा अजीर्णयुक्त है, जिसने भोजन किया है अथवा जिसे |
है । बल क्षीण नहीं करती। तथा अनसे आच्छादित होनेके प्यास लग रही है, उसे संशोधन तथा संशमन कोई भी औषध |
कारण मुखसे ( अस्वादिष्ठ होनेके कारण) निकलती भी नहीं। नपीना चाहिये ॥५६॥
वृद्ध, बालक, सुकुमार तथा स्त्रियोंको इसी प्रकार औषध अन्नसंयुक्तासंयुक्तौषधफलम् । खिलाना चाहिये ॥६॥ वीर्याधिकं भवति भेषजमन्नहीनं
मात्रानिश्चयः। हन्यात्तदामयमसंशयमाशु चैव । उद्घालवृद्धयुवतीमृदुभिश्व पीवं
मात्राया नास्त्यवस्थानं दोषमाग्निं बलं वयः। ग्लानिं परां नयति चाशु बलक्षयं च ॥५७ ॥ ।
व्याधि द्रव्यं च कोष्टं च वीक्ष्य मात्रां प्रयोजयेत्॥६०
मात्राका ठीक निश्चय नहीं किया जा सकता, क्योंकि सब अन्नहीन ( केवल) औषध अधिक गुण करता है तथा| रोगियोंके लिये तथा सब औषधोंकी एकही मात्रा नहीं हो निःसन्देह शीघ्र ही रोगको नष्ट करता है, पर वही बालक, वृद्ध, सकती । अतः दोष, अग्नि, बल, अवस्था, रोग, द्रव्य, कोष्ठका स्त्रियां तथा सुकुमार पुरुष यदि सेवन करें तो अधिक ग्लानि निश्चय कर मात्रा निश्चित करनी चाहिये ॥१२॥ तथा बलको क्षीण करता है ॥ ५७ ॥ औषधपाकलक्षणम् ।
सामान्यमात्राः। अनुलोमोऽनिलः स्वास्थ्यं क्षुत्तृष्णा सुमनस्कता।। उत्तमस्य पलं मात्रा त्रिभिश्वाक्षश्च मध्यमे । । लघुत्वमिन्द्रियोद्गारशुद्धि णौषधाकृतिः ॥५८॥ जघन्यस्य पलार्धेन स्नेहक्काथ्योषधेषु च ॥ ६३॥ .