Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
आचार्य धर्मकीर्ति के सात ग्रंथ हैं - (१) प्रमाणवार्तिक (२) प्रमाणविनिश्चय (३) न्यायबिन्दु (४) हेतुबिन्दु (५) वादन्याय (६) सम्बन्ध परीक्षा, और (७) सन्तानान्तरसिद्धि | श्वेरबात्सकी के अनुसार इनमें प्रमाणवार्तिक सर्वप्रमुख है तथा शेष छह गौण या इसके ही छह पाद हैं। ९२ एक अन्य व्याख्या के अनुसार प्रथम तीन ग्रंथ शरीर हैं और शेष चार उसके पाद । ९३ ऐसा कहा जाता है कि ये सातों ग्रंथ दिङ्नाग के प्रमाण समुच्चय की व्याख्या में लिखे गये हैं। राहुलसांकृत्यायन प्रमाणवार्तिक में ही प्रमाणसमुच्चय की व्याख्या का सम्पूर्ण समावेश स्वीकार कर लेते हैं । ९४ उनके अनुसार प्रमाणसमुच्चय के मंगलाचरण, " प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान परिच्छेदों की व्याख्या में प्रमाणवार्तिक में क्रमश: प्रमाणसिद्धि, प्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान परिच्छेद लिखे गये हैं। तथा प्रमाणसमुच्चय के अवशिष्ट परिच्छेदों दृष्टान्त, अपोह एवं जाति के विषय में पृथक् परिच्छेद नहीं लिखकर धर्मकीर्ति ने यथाप्रसंग इनकी व्याख्या का चार परिच्छेदों में अन्तर्भाव कर दिया है। धर्मकीर्ति प्रणीत ग्रंथों में प्रमाणविनिश्चय को छोड़कर समस्त ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं ।
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१. प्रमाणवार्तिक— —उपलब्ध बौद्ध-न्याय ग्रंथों में धर्मकीर्ति रचित प्रमाणवार्तिक अप्रतिम है। प्रमाणवार्तिक ने बौद्ध न्याय में महती ख्याति अर्जित की है। यह मूलतः दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय पर निर्मित वार्तिक है, किन्तु कालान्तर में टीकाकारों की लेखनी का विषय प्रमाणवार्तिक बन गया । बौद्धेतर दार्शनिकों के द्वारा भी यह ग्रंथ प्रमाण-चिन्तन का लक्ष्य बनाया गया। वाचस्पतिमिश्र, जयन्तभट्ट, अकलङ्क, विद्यानन्द, व्योमशिव आदि दार्शनिकों ने प्रमाणवार्तिक से उद्धरण देकर उनका खण्डन किया है।
धर्मकीर्ति रचित प्रमाणवार्तिक उद्योतकर के न्यायवार्तिक एवं कुमारिल भट्ट के श्लोकवार्तिक पर सीधा प्रहार कर बौद्ध न्याय-पताका को ऊंची उठाता है, फलस्वरूप बौद्धेतर दार्शनिकों के लिए यह आलोच्य एवं निरास्य बना रहा है।
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प्रमाणवार्तिक में चार परिच्छेद हैं- १. प्रमाणसिद्धि २. प्रत्यक्ष परिच्छेद ३. स्वार्थानुमान परिच्छेद एवं ४. परार्थानुमान परिच्छेद। इन चार परिच्छेदों में स्वार्थानुमान परिच्छेद पर स्वयं धर्मकीर्ति की वृत्ति है, अतः कुछ विद्वान् इन चार परिच्छेदों में स्वार्थानुमान को प्रथम मानते हैं। वे इसका क्रम इस प्रकार रखते हैं - १. स्वार्थानुमान २. प्रमाणसिद्धि ३. प्रत्यक्ष एवं ४. परार्थानुमान । पं० दलसुख मालवणिया का मन्तव्य है कि चारों परिच्छेदों का प्राकृतिक क्रम “प्रमाणसिद्धि " से प्रारम्भ हुआ होगा, किन्तु प्रमाणवार्तिक पर वृत्ति लिखते समय अनुमान को अधिक महत्त्व प्रदान करने हेतु स्वयं धर्मकीर्ति
९२. Buddhist Logic, Vol. I. p. 37
९३. Buston, History of Buddhism, pp. 44-45.
९४. दर्शन - दिग्दर्शन, पृ० ७४८
९५. प्रमाणभूताय जगद्धितैषिणे प्रणम्य शास्त्रे सुगताय तायिने ।
प्रमाणसिद्ध स्वमतात् समुच्चयः करिष्यते विप्रसृतादिहैककः ॥ - प्रमाणसमुच्चय, १
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