Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 413
________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा के सम्बन्ध में जानकारी संकलित हो जाती है, तथा समय पर उसका स्मृति के द्वारा हम पुनः ज्ञान कर लेते हैं । ३८२ यह कहना अधिक संगत एवं उपयुक्त होगा कि ज्ञान अर्थ को आकार, वर्ण आदि से विशिष्ट जानता है, किन्तु वह अर्थाकार नहीं होता । ज्ञान की उत्पत्ति अर्थ से नहीं होती है, तथापि अर्थ के सद्भाव में होने वाला अविसंवादी ज्ञान ही प्रमाण होता है। बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित अर्थसारूप्य का सिद्धान्त व्यवस्थाप्य व्यवस्थापक दृष्टि से संगत प्रतीत होता है, किन्तु व्यावहारिक एवं तर्क संगत दृष्टि से उसमें बाधाएं खड़ी होती हैं। । जैन दार्शनिकों का प्रतिपादन आगमापेक्ष दृष्टि के अधिक निकट है, तथापि अर्थ का व्यवस्थित एवं अविसंवादी ज्ञान करने के लिए जैन दार्शनिक ज्ञान को विशेषण- विशेष्यादि से युक्त एवं अभिलाप्य होने के कारण कथञ्चित् साकार स्वीकार करते हैं । प्रमाणाभास सभी दर्शन अपने प्रमाणलक्षण से इतर प्रमाणस्वरूप को प्रमाणाभास की श्रेणी में रखते हैं। यही कार्य बौद्ध एवं जैन दार्शनिकों ने भी किया है। जैन दार्शनिक वादिदेवसूरि ने प्रमाणाभास को स्वरूप, संख्या विषय एवं फल के आधार पर चार प्रकार का प्रतिपादित किया है। १४६ माणिक्यनन्दी ने अस्वसंविदित, गृहीतार्थ, दर्शन (निर्विकल्पक ज्ञान) एवं संशय आदि को स्वरूप से प्रमाणाभास कहा है १४७ 'इनके प्रमाणाभास होने का वे कारण मानते हैं कि ये अपने विषय का निश्चय नहीं करा पाते हैं । १४८ जिस प्रकार दूसरे पुरुष का ज्ञान अपने विषय का ज्ञान नहीं कराता उसी प्रकार अस्वसंविदित अर्थात् अस्व-प्रकाशक ज्ञान अपने विषय का निश्चय नहीं करता है । माणिक्यनन्दी दिगम्बर जैन दार्शनिक हैं तथा वे प्रमाण-लक्षण में स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, इसलिए उनके मत मे गृहीतार्थग्रही ज्ञान भी प्रमाणाभास की श्रेणी में आता है। श्वेताम्बर जैन दार्शनिक इसे प्रमाण ही मानते हैं, प्रमाणाभास नहीं । माणिक्यनन्दी ने निर्विकल्पक दर्शन को प्रमाणाभास कहा है, क्योंकि वह अपने विषय का निश्चय नहीं करता । संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय को भी वे अपने विषय का निश्चायक नहीं होने के कारण प्रमाणाभास मानते हैं। वादिदेवसूरि ने स्वरूप की दृष्टि से अज्ञान अनात्मप्रकाशक ज्ञान, स्वमात्रप्रकाशक ज्ञान, निर्विकल्पक ज्ञान एवं समारोप अर्थात् संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय को प्रमाणाभास कहा है, १४९ क्योंकि इनसे स्व एवं पर का व्यवसाय नहीं होता । १५० १४६. प्रमाणस्य स्वरूपादिचतुष्टयाद्विपरीतं तदाभासम् ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ६ . २३ १४७. अस्वसंविदितगृहीतार्थदर्शनसंशयादय: प्रमाणाभासा : - परीक्षामुख, ६.२ १४८. स्वविषयोपदर्शकत्वाभावात् । पुरुषान्तरपूर्वा र्थ गच्छत्तृणस्पर्शस्थाणुपुरुषादिज्ञानवत् । - परीक्षामुख, ६. ३-४ १४९. अज्ञानात्मकानात्मप्रकाशकस्वमात्रावभासकनिर्विकल्पकसमारोपाः प्रमाणस्य स्वरूपाभासाः । प्रमाणनयतत्त्वालोक, ६.२४ १५०. तेभ्यः स्वपरव्यवसायस्यानुपपत्ते: । - प्रमाणनयतत्त्वालोक, ६.२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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