Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 414
________________ प्रमेय ,प्रमाणफल और प्रमाणाभास ३८३ अज्ञान शब्द के द्वारा वे इन्द्रियार्थसनिकर्ष,कारकसाकल्य आदि को,अनात्मप्रकाशक ज्ञान के द्वारा वे नैयायिकादि के द्वारा कल्पित मात्र परप्रकाशक ज्ञान को,स्वमात्रप्रकाशकज्ञान के द्वारा वे विज्ञानवादियों के ज्ञान को, निर्विकल्पक ज्ञान के द्वारा बौद्धसम्मत चतुर्विध प्रत्यक्ष को प्रमाणाभास कहते हैं । समारोप के अन्तर्गत वे संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय को रखकर उन्हें भी प्रमाणाभास कहते हैं । वादिदेवसूरि ने जैनदर्शन में प्रतिपादित 'दर्शन' को भी अज्ञानात्मक होने के कारण अप्रमाण या प्रमाणाभास कहा है ।१५१ स्वरूपाभास के रूप में प्रमाणाभास जहां प्रमाण के स्वरूप पर आधृत है वहां संख्याभास के रूप में वह प्रमाण की संख्याओं पर आधृत है । जैन दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दो ही प्रमाण होते हैं । इनसे भित्र प्रमाण-संख्या मानना संख्याभास केअन्तर्गत सम्मिलित होता है । १५२ बौद्धदर्शन में संख्या की दृष्टि से यद्यपि दो ही प्रमाण मान्य हैं - प्रत्यक्ष एवं अनुमान, किन्तु अनुमान में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान,तर्क एवं आगम प्रमाणों का समावेश नहीं होता है, परोक्ष प्रमाण में हो जाता है इसलिए बौद्ध मान्य दो प्रमाण भी जैन दृष्टि से संख्याभास से दूषित हैं। प्रमाण का विषय जैन दर्शन में सामान्यविशेषात्मक वस्तु है । इससे भित्र केवल सामान्य,केवल विशेष अथवा दोनों को भिन्न-भिन्न विषय मानना विषयाभास रूप प्रमाणाभास है। १५३ इस दृष्टि से बौद्धदर्शन में मान्य दो विषय स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण भी जैनमत में विषयाभास के दोष से ग्रस्त हैं । स्वरूप,संख्या एवं विषय के समान फल पर आधृत आभास फलाभास है । जैन दार्शनिक प्रमाण एवं उसके फल को एक दूसरे से कथञ्चित् भित्र एवं कथञ्चित् अभिन्न मानते हैं । बौद्ध दार्शनिक दोनों को प्रायः अभिन्न मानते हैं, नैयायिक आदि भिन्न मानते हैं इसलिए जैनों के अनुसार बौद्ध एवं नैयायिकादि की मान्यता फलाभास है।१५४ जिस प्रकार प्रमाण की तरह प्रतीत होने वाले अप्रमाण को प्रमाणाभास कहा गया है उसी प्रकार प्रत्यक्षाभास, अनुमानाभास, आगमाभास,स्मरणाभास,प्रत्यभिज्ञानाभास, तर्काभास आदि आभासों को भी उपपत्र कर लिया जाता है । जैन दार्शनिक माणिक्यनन्दी एवं वादिदेवसूरि ने इनका सोदाहरण विवेचन किया है।५५ माणिक्यनन्दी ने बौद्धमान्य निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को अविशद होने से प्रत्यक्षाभास कहा है । वादिदेवसूरि ने सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक प्रत्यक्षाभास के पृथक् पृथक् लक्षण किए हैं । वस्तुतः सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष न होने पर भी मेघों में गन्धर्वनगर की भांति जो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूप प्रतीत हो, वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभास है । इसी प्रकार जो पारमार्थिक १५१. यथा सत्रिकर्षाद्यस्वसंविदितपरानवभासकज्ञानदर्शनविपर्ययसंशयानध्यवसाया: ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ६.२५ १५२.प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमित्यादि संख्यानं तस्य संख्याऽऽभासम्।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ६.८५ १५३. सामान्यमेव, विशेष एव, तद् द्वयं वा स्वतन्त्रमित्यादिस्तस्य विषयाभास: ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक,६.८६ १५४. अभित्रमेव भित्रमेव वा प्रमाणात् फलं तस्य तदाभासम् ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ६.८७ १५५. द्रष्टव्य परीक्षामख एवं प्रमाणनयतत्त्वालोक के षष्ठ परिच्छेद। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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