Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 393
________________ ३६२ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा अर्थ में ही अर्थ क्रिया का होना उपपन्न है,क्योंकि यह उत्पाद,व्यय एवं ध्रौव्य से युक्त होता है अतः पूर्व आकार का परिहार, उत्तर आकार की प्राप्ति एवं द्रव्य रूप में अवस्थित आदि परिणामों के रूप में अर्थक्रिया का होना सामान्यविशेषात्मक अर्थ में ही संभव है। ५ वादिदेवसूरि प्रतिपादित करते हैं कि सामान्यविशेषात्मक अर्थ प्रमाण का विषय होता है, यह प्रत्यक्ष से प्रतिपन्न है ही ,किन्तु अनुमान से भी यह सिद्ध है,क्योंकि अनुवृत्ति एवं व्यावृत्ति प्रत्यय की अबाधित प्रवृत्ति सामान्यविशेषात्मक अर्थ में ही हो सकती है, अन्यत्र नहीं।४६ समीक्षण ___ बौद्ध दार्शनिकों ने स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण के रूप में जिन दो प्रमेयों की स्थापना की , उनके स्वरूप का खण्डन करना जैन दार्शनिकों का मुख्य प्रतिपाद्य नहीं रहा ,किन्तु बौद्धों द्वारा जिन आधारों पर प्रमाण का विषय स्वीकार किया गया उनका खण्डन करना जैन दार्शनिकों के लिए अभिप्रेत रहा। स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण के पृथक् प्रमेयत्व का खण्डन भी जैन दार्शनिकों का विषय रहा तथा उन्होंने यह बलपूर्वक प्रतिपादित किया कि प्रमाण का विषय सामान्यविशेषात्मक अथवा द्रव्यपर्यायात्मक अर्थ होता है न कि स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण अर्थ । स्वलक्षण को बौद्ध दार्शनिक अर्थक्रियाकारी होने से परमार्थसत् मानते हैं तथा उसे ही प्रमुख प्रमेय के रूप में प्रतिपादित करते हैं ,किन्तु जैन दार्शनिक स्वलक्षण के क्षणिक होने के कारण उसमें अर्थक्रिया सामर्थ्य का प्रतिषेध करते हैं। जैनदार्शनिकों का मन्तव्य है कि उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक अथवा सामान्यविशेषात्मक अर्थ में ही अर्थक्रिया का होना संभव है ,एकान्त क्षणिक स्वलक्षण में नहीं । क्षणिक स्वलक्षण में क्रम से एवं युगपद् दोनों प्रकार से अर्थक्रिया का होना संभव नहीं है, क्योंकि उसमें हेतुफलभाव नहीं बन पाता तथा अक्षणिकता का दोष भी आता है। बौद्ध दार्शनिकों का मन्तव्य है कि स्वलक्षण क्षणों का निर्हेतुक विनाश होता है अतः उनकी क्षणिकता में अन्य निमित्त की आवश्यकता नहीं है । स्वलक्षण-क्षणों में अर्थक्रिया किस प्रकार होती है, इसे बौद्धदार्शनिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि स्वलक्षण-क्षण स्वयं समाप्त होकर नये स्वलक्षण क्षण को जन्म दे जाते हैं, यही उनकी अर्थक्रिया है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में जिस प्रकार के पृथक् अस्तित्व वाले ‘सामान्य' नामक पदार्थ का प्रतिपादन हुआ है वैसा सामान्य पदार्थ न बौद्ध दार्शनिकों को मान्य है और न जैन-दार्शनिकों को । बौद्ध दार्शनिकों ने सामान्य' या 'जाति' के खण्डनार्थ-पर्याप्त चिन्तन कर प्रबल तर्क प्रस्तुत किये हैं, तथा अतद्व्यावृत्तिस्वरूप 'अपोह' से सामान्यलक्षण अर्थ को सिद्ध किया है। बौद्धदार्शनिक क्षणिकवादी हैं, वे स्वलक्षण-क्षण को ही परमार्थसत् मानने वाले हैं। स्वलक्षण-क्षण एक दूसरे से ४५. अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात्, पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्च ।-परीक्षामुख, ४.२ ४६. स्याद्वादरत्नाकर, पृ.७२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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