Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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प्रमेय प्रमाणफल और प्रमाणाभास
अत्यन्त व्यावृत्त रहते हैं । इस प्रकार बौद्ध मत में अनुगताकार की प्रतीति कराने वाले 'सामान्य' नामक पदार्थ को मानना एकदम असंभव एवं अनुचित था । स्वलक्षण क्षणों में ही अपोह के कारण सादृश्य का बोध उन्होंने स्वीकार किया है, किन्तु उस सादृश्य ज्ञान को भ्रान्त माना है । भ्रान्त मानते हुए भी कभी कभी उस सदृशतायुक्त सामान्यलक्षण अर्थ से अर्थक्रियासमर्थ स्वलक्षण की प्राप्ति की जा सकती है, इसलिए उसे बौद्धदार्शनिकों ने संवृतिसत् के रूप में स्वीकार भी किया है । धर्मकीर्ति आदि दार्शनिक कहते हैं कि स्वलक्षण क्षणों की सन्तान में एकत्व या सादृश्य का ज्ञान होने लगता है जो वस्तुतः असत् है ।
जैन दार्शनिक बौद्धदार्शनिकों के अपोहवाद से सहमत नहीं हैं तथा न्याय-वैशेषिकों के सामान्य को भी पृथक् पदार्थ के रूप में स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं हैं तथापि वे विभिन्न वस्तुओं या एक ही वस्तु की पर्यायों (अवस्थाओं) में समानधर्मों के कारण होने वाली समानता के ज्ञान का प्रतिषेध नहीं करते हैं । वे ‘सामान्य' नामक पृथक् पदार्थ का अस्तित्व स्वीकार न करते हुए तथा समान गुणधर्मों
प्रत्येक वस्तु में स्वीकार करते हुए 'समानता' का ज्ञान कर लेते हैं ।
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महत्त्वपूर्ण विचारणीय बिन्दु यह है कि बौद्धदार्शनिकों ने जिस स्वलक्षण को अर्थक्रियासमर्थ होने से परमार्थसत् कहा है तथा जिसे प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय प्रतिपादित किया है उसकी सिद्धि अनुमानप्रमाण का अवलम्बन लिये बिना नहीं की जा सकती। अनुमान प्रमाण से ही क्षणभंगवाद अथवा स्वलक्षण-क्षण की सिद्धि की जा सकती है, इन्द्रिय प्रत्यक्ष आदि से स्वलक्षण-क्षण को नहीं जाना जा सकता । स्वलक्षण के दृश्य एवं प्राप्य क्षण के एकत्व का अध्यवसाय करने पर ही उसका प्रमाणत्व सिद्ध होता है जो निर्विकल्पक नहीं रह पाता है ।
संवृतिसत् को स्वीकार किये बिना परमार्थसत् का प्रतिपादन करना संभव नहीं था । परमार्थसत् स्वलक्षण को बौद्ध दार्शनिकों ने शब्द के द्वारा अनभिधेय कहा है, अतः संवृतिसत् के द्वारा ही परमार्थसत् का अभिधान किया गया है। इस प्रकार बौद्ध दार्शनिकों ने संभवतः 'असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते' वाक्य को सार्थक किया है।
प्रमाण- फल
प्रमाण के साथ उसके फल की चर्चा भी अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई है। वैदिक एवं श्रमण सभी दर्शन प्रमाण के साथ फल की भी चर्चा करते हैं ।
बौद्ध दर्शन में प्रमाण- फल
जैन एवं बौद्ध दोनों दर्शन प्रमाण एवं उसके फल को ज्ञानरूप मानते हैं। प्रमाण एवं प्रमिति (फल) दोनों को ज्ञानात्मक स्वीकार करने पर यह समस्या उठती है कि प्रमाण एवं फल दोनों जब ज्ञानात्मक हैं तो उनमें फिर क्या भेद है ? बौद्ध दार्शनिकों ने प्रमाण एवं प्रमिति के स्वरूप में भेद
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