Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
सम्बद्ध नहीं होता और अर्थरूपता भी उसे अर्थ से सम्बद्ध करने में समर्थ नहीं है ,क्योंकि ज्ञान के साथ अर्थरूपता का तादात्म्य नहीं है । द्वितीय पक्ष भी उचित नहीं ठहरता है ,क्योंकि अर्थ से सम्बद्ध ज्ञान के साथ ज्ञानगत अर्थरूपता रहती हुई उपलब्ध नहीं होती है । ज्ञान का अर्थ से इतना ही सम्बन्ध है कि वह विशिष्ट विषय का ज्ञान करता है।९३० . प्रभाचन्द्र का कथन है कि ज्ञान की उत्पत्ति में अर्थ के समान इन्द्रियां,आलोक आदि और भी
अनेक कारण होते हैं, फिर ज्ञान अर्थ का ही आकार क्यों ग्रहण करता है,इन्द्रियादि का क्यों नहीं ? इसके उत्तर में धर्मकीर्ति कहते हैं कि जिस प्रकार आहार,काल आदि अनेक कारणों के होने पर भी संतान,माता या पिता में से किसी एक के आकार को धारण करती है,उसी प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियों के समानरूप से कारण होने पर भी ज्ञान नील अर्थ के ही आकार को ग्रहण करता है,अन्य के आकार को नहीं १३१ किन्तु धर्मकीर्ति का यह उत्तर ज्ञान की योग्यता का ही आश्रय लेता है । ज्ञान में ही ऐसी योग्यता की कल्पना करनी पड़ती है कि जिससे वह अर्थ का आकार ग्रहण कर पाता है । प्रभाचन्द्र के अनुसार ज्ञान की योग्यता निराकार ज्ञान में भी संभव है। निराकार ज्ञान भी इन्द्रियादि निमित्तों के होने पर क्षयोपशम जन्य योग्यता के कारण पुरोवर्ती नीलादि अर्थ को नियत रूप से जान सकता है।१३२
धर्मकीर्ति द्वारा दिये गये पुत्रोत्पत्ति उदाहरण में एक दोष और आता है,क्योंकि उसके अनुसार पुत्र अपने उपादान कारणभूत पिता या माता में से किसी एक के आकार को धारण करता है उसी प्रकार ज्ञान को भी अर्थ के आकार को ग्रहण नहीं करके उसके उपादान कारणभूत पूर्व क्षणवर्ती ज्ञान के आकार को ग्रहण करना चाहिए।१३३ ___ ज्ञान में अर्थाकारता का प्रतिषेध करते हुये प्रभाचन्द्र ने एक तर्क यह भी दिया है कि ज्ञान प्रमाणरूप है । उसमें यदि प्रमेय का आकार गृहीत होता है तो प्रमाण भी प्रमेय बन जायेगा एवं उस प्रमेय का ज्ञान करने के लिये एक भिन्न प्रमाण की आवश्यकता होगी तथा प्रमाण के स्वरूप में भी व्याघात होगा। प्रमाण की प्रतीति अन्तर्मुख रूप से तथा प्रमेय की प्रतीति बहिर्मुख रूप से होती है, अतः ये दोनों भिन्न हैं ।१३४
प्रभावन्द्र ने अर्थाकारता का प्रतिषेध करने के लिये बौद्धों से प्रश्न किया है कि ज्ञानगत नीलादि आकार से उसके क्षणिकत्वादि आकार भिन्न हैं या अभिन्न ? यदि भिन्न हैं तो नीलादि आकारों को
१३०.प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१,१० २८५-८६ एवं न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० १७१ १३१. यवाहारकालादेः समानेऽपत्यजन्मनि ।
पित्रोस्तदेकमाकारं धत्ते नान्यस्य कस्यचित् ॥-प्रमाणवार्तिक, २.३६९ १३२. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१,१० २८१-२८२ १३३. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० २८९ १३४. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१,पृ० २८३
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