Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 409
________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा में प्रवृत्त होता है, समस्त अर्थों को नहीं । १३८ जिस प्रकार दीपक घटादि अर्थ के आकार को ग्रहण किये बिना पुरोवर्ती घटादि का प्रकाशक होता है उसी प्रकार निराकार ज्ञान भी पुरोवर्ती अर्थों का प्रकाशन करने में समर्थ होता है। ज्ञान पुरोवर्ती अर्थों का प्रकाशन अपनी तथाविध योग्यता के कारण करता है। साकार ज्ञान में भी अर्थ का ही आकार आता है, इन्द्रियादि का नहीं, अतः उसमें भी अर्थाकारता की योग्यता स्वीकार की गयी है तथा योग्यता से ही घटाकार ज्ञान के द्वारा एक घट का ही ज्ञान स्वीकार किया गया है, ब्रह्माण्ड के समस्त घटों का नहीं । जैन यह योग्यता निराकार ज्ञान में ही स्वीकार करते हैं । १३९ ३७८ जैनमत में साकार ज्ञान जैनागमों में ज्ञान को साकार बतलाया गया है। प्रज्ञापना सूत्र में स्पष्ट कथन है कि ज्ञान साकार होता है एवं दर्शन निराकार होता है। १४० जैनागमों में ही नहीं पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि में भी दर्शन को अनाकार तथा ज्ञान को साकार कहा है । १४१ अकलङ्क ने भी प्रत्यक्षलक्षण में प्रमाण को स्पष्ट कहने के साथ साकार कहा है ।१४२ किन्तु जैनागम एवं जैनदर्शन में प्रतिपादित ज्ञान की साकारता का वह आशय नहीं है जो बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित है। बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित साकारता का अर्थ अर्थाकारता या अर्थसारूप्य है। जिसके अनुसार ज्ञान अर्थ से उत्पन्न होकर अर्थ का आकार ग्रहण कर लेता है । विज्ञानवादी दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान में अर्थाभास होता है । इसलिये ज्ञान अर्थाकार कहा गया है । वस्तुतः वह अर्थ से उत्पन्न न होकर भी योग्यता के कारण वासना विप्लव से अर्थाकार प्रतीत होता है। जैन दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान की साकारता इस अर्थ में है कि ज्ञान विशेषणादि से विशिष्ट वस्तु का ग्रहण करता है, तथा ग्राह्य- ग्राहक भेद का उसमें प्रतिभास होता है। यह नहीं कि अर्थ का प्रतिबिम्ब या अर्थ का आकार ज्ञान में आ जाता है। जैन दार्शनिक ज्ञान की उत्पत्ति अर्थादि प्राह्य पदार्थों से नहीं मानते हैं। उनके अनुसार ज्ञानावरण कर्म की कमी या क्षय के कारण, इन्द्रिय, मन अथवा आत्मा के द्वारा बाह्य अर्थों का ग्राह्य रूप में ज्ञान होता है। प्राह्य रूप में विशेषणादि से विशिष्ट, सामान्य-विशेषात्मक अर्थ का ज्ञान होना ही जैन दार्शनिकों के ज्ञान की साकारता है। अर्थाकारता की दृष्टि से ज्ञान निराकार ही होता है। सिद्धसेन दिवाकर ने प्रतिपादित किया है कि सामान्य का ग्रहण दर्शन है तथा विशेष का ग्रहण ज्ञान है। १४३ दर्शन के द्वारा सामान्य का ग्रहण निराकार उपयोग तथा ज्ञान के द्वारा विशेष का ग्रहण साकार उपयोग माना गया है। १४४ वादिराज का कथन है कि दर्शन को १३८. केवलज्ञानी सर्वश पुरुष समस्त अर्थों को एक साथ जानते हैं। १३९. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० १७०-७१ एवं प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० २८१, २८६ १४०. सागारे से णाणे भवति, अणागारे से दंसणे भवति । - प्रज्ञापनासूत्र, पद ३०, सूत्र ६६३ १४१. साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमिति ।- सर्वार्थसिद्धि २.९ १४२. प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा । द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् ॥ - न्यायविनिश्चय, ३ १४३. जं सामण्णग्गहणं दंसणमेयं विसेसियं णाणं । — सन्मतितर्कप्रकरण, २.१ १४४. सन्मतितर्कप्रकरण, २.१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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