Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 406
________________ प्रमेय, प्रमाणफल और प्रमाणाभास साकारता है, अथवा तो अर्थ के आकार को धारण करना साकारता है ? इनमें प्रथम तीन विकल्प सिद्धसाध्य हैं। ये जैनों को भी अभीष्ट हैं क्योंकि इनमें से एक का भी अभाव होने पर ज्ञान को ज्ञान नहीं कहा जा सकता । किन्तु ज्ञान में अर्थ का आकार धारण किया जाना उपपन्न नहीं है । क्योंकि नीलादि आकार ज्ञान में संक्रमित नही होते हैं। नीलादि अर्थ जड़ हैं । जड़ का धर्म ज्ञान में संक्रमित नहीं होता है । १२६ 1 अकलङ्क ने ज्ञान में अर्थाकारता का प्रतिषेध करते हुए एक यह तर्क दिया है कि जिस प्रकार ज्ञान नील अर्थ का नील आकार गृहीत होता है उसी प्रकार उसकी जड़ता क्यों नहीं गृहीत होती ? उसे भी गृहीत होना चाहिये । अकलङ्क के इस तर्क को प्रभाचन्द्र ने आगे बढाया है । वे कहते हैं कि एक ज्ञान नीलार्थ की नीलता का ग्रहण करने के साथ यदि जड़ता का भी ग्रहण करता है तो वह ज्ञान भी उत्तरक्षण की उत्पत्ति के नियम से जड़ हो जायेगा। यदि नीलता का ग्रहण स्वीकार करें एवं जड़ता का नहीं तो नीलता से जड़ता को भिन्न मानना पड़ेगा । फलस्वरूप एक अर्थ निरंश सिद्ध नहीं हो सकेगा एवं अनेकान्तवाद को स्वीकार करना होगा। यदि नीलता का ग्रहण तदाकार ज्ञान से होता है एवं जड़ता का ग्रहण अतदाकार ज्ञान से होता है तो जड़ता के समान नीलता की प्रतीति भी अतदाकार ज्ञान से हो सकती है। क्योंकि दोनों ही प्राह्य विषय हैं । दूसरी बात यह है कि नीलाकार ज्ञान ही यदि अतदाकार होकर जड़ता का ज्ञान करता है तो 'अर्धजरती न्याय' का दोष आता है। यदि जड़ता का ज्ञान भन्न ज्ञान से होता है तो वह यदि उसे तदाकार होकर जानता है तो वह ज्ञान भी जड़ हो जायेगा और यदि वह उसे अतदाकार होकर जानता है, तो अर्थाकारता या अर्थसारूप्य की कल्पना ही व्यर्थ सिद्ध हो जाती है। १२७ प्रभाचन्द्र कहते हैं कि अर्थाकारता के नियमानुसार यदि बुद्ध भगवान् भी दूसरों के रागादि का वेदन करते समय उनसे तदाकार हो जाते हैं तो वीतराग कैसे कहे जा सकेंगे ? वे विधूतकल्पनाजाल कैसे हो सकेंगे ? इसलिए तदाकारता का नियम उचित नहीं है। १२ धर्मकीर्ति कहते हैं 'अर्थेन घटयत्येनां न हि मुक्त्वार्थरूपताम् १२९ अर्थात् अर्थाकारता के अभाव में अर्थ का व्यवस्थापन नहीं किया जा सकता। प्रभाचन्द्र के अनुसार धर्मकीर्ति का यह कथन उपयुक्त नहीं है । वे प्रश्न करते हैं कि 'अर्थेन घटयति' इत्यादि में घटयति शब्द का क्या अर्थ है ? विवक्षित ज्ञानको अर्थ से सम्बन्धित कराना उसका अर्थ है अथवा अर्थ से सम्बद्धज्ञान का निश्चय कराना अर्थ है ? इनमें प्रथम पक्ष अयुक्त है, क्योंकि अर्थरूपता विवक्षित ज्ञान को अर्थ से सम्बन्धित नहीं करती है, ज्ञान स्वयं ही अपने कारणों द्वारा अर्थ से सम्बद्ध ही उत्पन्न होता है। ज्ञान उत्पन्न होकर अर्थ से १२६. न्यायकुमुदचन्द्र पृ० १६७ १२७. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० २७८-८० एवं न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० १६८ ३७५ १२८. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० १६८ १२९. प्रमाणवार्तिक, २.३०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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