Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 404
________________ प्रमेय, प्रमाणफल और प्रमाणाभास 1 दोष आता है । यदि प्रत्यक्ष के पृष्ठभावी विकल्प के द्वारा सारूप्य का ज्ञान होता है, तो वह विकल्प भी अवस्तुरूप होने से वस्तुभूत सारूप्य का ज्ञान नहीं कर सकता । यदि सारूप्य भी अवस्तुभूत है तो प्रत्यक्ष भी अवस्तुभूत सिद्ध होगा, क्योंकि अर्थसारूप्य के बिना प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। इसलिये सारूप्य की कल्पना व्यर्थ है । ११४ वादिराज साकारवाद के निरसन का निष्कर्ष देते हुए प्रतिपादित करते हैं कि बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति द्वारा प्रमेयाधिगति के साधन मेयरूपता (विषयाकारता) को प्रमाण कहना उचित नहीं हैं, क्योंकि प्रमाण निर्णयात्मक होता है, ११५ और निर्णयात्मक ज्ञान में अर्थ का ज्ञान पृथक् रूप से ही होता है । समस्त प्राणियों का यह अनुभव है कि उन्हे प्रत्यक्षज्ञान द्वारा नील आदि अर्थ बाहर दिखाई देते हैं । ११६. वस्तुतः अर्थसारूप्यवाद की कल्पना उसी प्रकार बाधित होती है जिस प्रकार अग्नि को शीतल कहना । ११७ प्रतिकर्मव्यवस्था निराकार ज्ञान से भी संभव है । जिस प्रकार प्रकाश अर्थ का आकार ग्रहण किये बिना अर्थ को प्रकाशित करता है उसी प्रकार ज्ञान भी अर्थ सारूप्य को ग्रहण किये बिना अर्थ का ज्ञान करा देता है। इसलिये सारूप्य को सिद्ध करने का धर्मकीर्ति का प्रयास व्यर्थ है । ११८ ३७३ अभयदेवसूरि-सिद्धसेन के टीकाकार अभयदेवसूरि ने अपने ग्रंथ तत्त्वबोधविधायिनी में वैभाषिक बौद्धों के निराकारवाद का सौत्रान्तिक बौद्धों द्वारा खण्डन प्रस्तुत किया है एवं सौत्रान्तिक बौद्धों के साकारवाद का निराकार ज्ञानवादियों के द्वारा निराकरण किया है । अभयदेवसूरि कहते हैं कि जो जिसके आकार का नहीं है वह उसका ग्राहक नहीं होता है, ऐसी कोई व्याप्ति सिद्ध नही है । ११९ आकार तो पूर्वनीलक्षण का उत्तरनीलक्षण में भी पाया जाता है, किन्तु वह पूर्वनीलक्षण का ग्राहक नहीं होता है । यदि ज्ञान नीलाकार अनुभव में आता है इसलिये अर्थ को नील रूप में व्यवस्थापित किया जाता है तो त्रिलोक में विद्यमान समस्त नील अर्थों का एक साथ ज्ञान हो जाना चाहिये, क्योंकि वह सारूप्य समस्त नील अर्थों में समान है । यदि नीलाकारता के समान होने पर भी कोई प्रतिनियम हेतु है जिससे पुरोवर्ती नीलादि का ही ज्ञान होता है तो अनाकार ज्ञान में भी उस प्रतिनियम हेतु से प्रतिनियत अर्थ की व्यवस्था संभव हो जायेगी। 'इस प्रकार ज्ञान में अर्थाकारता की कल्पना वृथा है । १२० ११४. न्यायविनिश्चयविवरण, भाग -१, पृ० २२५ ११५. तस्मात्प्रमेयाधिगतेः साधनं मेयरूपता । विदुषा न वक्तव्या, वक्तव्या निर्णयात्मता ॥ - न्यायविनिश्चयविवरण, १२२१ ११६. प्रसिद्धानुभवं हीदं यन्नीलादिबहिर्गतम् । • प्रत्यक्षे प्रतिभातीति सर्वप्राणभृतामपि ॥ - न्यायविनिश्चयविवरण, १२२३ ११७. प्रत्यक्षेण स बाध्येत पावकानुष्णवादवत् । - न्यायविनिश्चयविवरण, १२२४ ११८. सारूप्यमन्तरेणापि तत्रार्थनियमस्थितेः । तत्साधनप्रयासोऽयं धर्मकीर्तेरतोवृथा ॥ - न्यायविनिश्चयविवरण, ६६६ ११९. न च यद् यदाकारं तत् तस्य ग्राहकम्” इति व्याप्तिसिद्धिः । - तत्त्वबोधविधायिनी, पृ० ४६४.३२ १२०. तत्त्वबोधविधायिनी, पृ० ४६५.२-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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