Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 403
________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा वादिराज - अकलङ्क के विवरणकार वादिराज ने भी बौद्ध सम्मत साकार ज्ञानवाद का निरसन किया है। उनका कथन है कि जड़ता नील अर्थ से भिन्न नहीं है। अर्थ की जड़ता का ज्ञान भी यदि साकार रूप में होता है तो ज्ञान जड़ हो जायेगा तथा यदि जड़ता का ज्ञान अतदाकार रूप से गृहीत हो सकता है तो फिर उसी प्रकार नीलज्ञान को भी नीलाकार हुए बिना स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार अर्थाकारता की कल्पना व्यर्थ सिद्ध होती है। १०९ ३७२ धर्मकीर्ति कहते हैं कि ज्ञान यदि अतदाकार हो, तो उसकी स्मृति नहीं हो सकती । ११० दिङ्नाग के अनुसार विषयज्ञान का ज्ञान उसे विषयाकार स्वीकार किये बिना नहीं हो सकता । इसका तात्पर्य है कि ज्ञान यदि अर्थाकार न हो तो स्मरण में अर्थ का 'यह नील' आदि रूप से नियमतः स्मरण नहीं हो सकता । किन्तु बौद्धों ने जिस प्रकार अर्थाकारता को स्मृति में कारण माना है उसी प्रकार आलोकाकारता को क्यों नहीं ? १११ यदि नील अर्थ के ज्ञान में आलोक का आकार नहीं आता है तो नील अर्थ दिखाई कैसे देता है? यदि आलोकाकार का ग्रहण हुए बिना ही नील अर्थ दिखाई दे जाता है तो वादिराज कहते हैं कि नील अर्थ में भी आकार की कल्पना व्यर्थ है। उसका भी ज्ञान आकार ग्रहण किये बिना हो जाना चाहिए । ११२ ज्ञान को विषयाकार मानने पर भी नीलसंकलित ज्ञान का ही स्मरण होता है आलोकादिसंकलित ज्ञान का नहीं, इसके पीछे ज्ञान में उस प्रकार की शक्ति स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है । ११३ यदि ज्ञान में विषयाकार को ग्रहण करने की ही शक्ति है, आलोकाकार आदि को ग्रहण करने की नहीं, तो फिर ज्ञान में विषय का आकार ग्रहण करने की शक्ति मानने की भी क्या आवश्यकता है? ज्ञान में ही अर्थविशेष को जानने एवं स्मरण रखने की स्वतः शक्ति क्यों नहीं मान ली जाती ? वादिराज बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि सारूप्य का ज्ञान कैसे होता है ? यदि सारूप्य को जिस ज्ञान ने ग्रहण किया है उसी ज्ञान से सारूप्य गृहीत होता है तो वह ज्ञान पुनः सारूप्य को ग्रहण किये बिना ही उसका ज्ञान कर लेता है या सारूप्य को ग्रहण करके । यदि पुनः सारूप्य को ग्रहण किये बिना ही सारूप्य का ज्ञान कर लेता है तो सारूप्य की कल्पना व्यर्थ है । यदि वह सारूप्य को ग्रहण करता है तो अन्योन्याश्रय दोष आता है, क्योंकि अर्थ का ज्ञान हुए बिना सारूप्य का ज्ञान नहीं हो सकता तथा सारूप्य के बिना अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता । सारूप्यान्तर की कल्पना करने पर अनवस्था १०९. अतदाकारया वित्त्या जाड्यस्य यदि वेदनम् । नीलस्यापि तयैवेति व्यर्थमाकारकल्पनम् ॥ - न्यायविनिश्चयविवरण, ६७७ ११०. अन्यथा तदाकारं कथं ज्ञानेऽधिरोहति । - प्रमाणवार्तिक, २.३८० १११. यदि नीलस्य तज्ज्ञानाकारत्वात्तत्स्मृतौ स्मृतिः । आलोकोऽपि तदाकारस्तस्याप्येषा न किं भवेत् ॥ - न्यायविनिश्चयविवरण, ७२५ ११२. नीलज्ञानमनालोकाकारं चेत्तद्दृशिः कथम् । तथापि तद्दृशौ व्यर्थं नीलेऽप्याकारकल्पनम् ॥ - न्यायविनिश्चयविवरण, ७२६ ११३. न्यायविनिश्चयविवरण, भाग -१, पृ० २८९.१५-१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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