Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
ज्ञानोत्पत्ति में कारण कैसे माना जा सकता है। १२ इसलिए अर्थ को या अर्थसन्निकर्ष को ज्ञानोत्पत्ति में कारण कहना उचित नहीं है। जिस प्रकार अर्थ अपने कारणों से उत्पन्न होकर स्वतः परिच्छेद्य बनता है उसी प्रकार ज्ञान भी अपने क्षयोपशमादि कारणों से उत्पन्न होकर अर्थ का स्वतः परिच्छेदक होता है । ९३ ज्ञान में ही ऐसी योग्यता है कि वह अर्थ का प्रतिनियत ज्ञान कर सकता है। इसलिए तदुत्पत्ति (अर्थोत्पन्नता) के अभाव में भी ग्राह्य-ग्राहक भाव की सिद्धि हो जाती है । ९४
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अकलङ्क कहते हैं कि ज्ञान में अर्थसारूप्य या अर्थाकारता नहीं होती, क्योंकि ज्ञान अमूर्त होता है एवं अर्थ मूर्त होता है । मूर्त दर्पण आदि को मूर्त मुखादि का प्रतिबिम्ब धारण करते हुए देखा जा सकता है, किन्तु अमूर्त ज्ञान मूर्त पदार्थ के प्रतिबिम्ब को धारण नहीं कर सकता । ज्ञान अमूर्त है, क्योंकि उसमें मूर्तता के लक्षणों का अभाव है। इसलिए ज्ञान अर्थसारूप्य युक्त नहीं होता । १५ जिंस प्रकार बौद्ध दार्शनिक शब्द में अर्थ स्वीकार नहीं करते हैं तथा शब्द को अर्थात्मक भी नहीं मानते हैं; उसी प्रकार ज्ञान में भी अर्थ नहीं होता है और ज्ञान अर्थात्मक भी नहीं होता है, जिससे अर्थ के प्रतिभासित होने पर ज्ञान प्रतिभासित हो ।'
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इस प्रकार जैन दार्शनिकों के अनुसार तदुत्पत्ति, तदाकारता एवं तदध्यवसाय को प्रमाण-व्यवस्था का कारण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये सब मिलकर भी प्रामाण्य के कारण नहीं हैं तथा पृथक् पृथक् भी प्रामाण्य के कारण नहीं है । ९७ अकलङ्क कहते हैं कि जो दोष बौद्ध दार्शनिक 'सामान्य' में देते हैं तथा सामान्य को स्वीकार नहीं करते हैं, वे ही दोष 'सारूप्य' में भी आते हैं, क्योंकि वह सारूप्य भी असत् एवं काल्पनिक है
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बौद्ध का निरसन करते हुए अकलङ्क कहते हैं कि अर्थसारूप्य या प्रतिबिम्ब के बिना भी ज्ञान में अर्थ को प्रकाशित करने की स्वतः योग्यता है । ताद्रूप्य के बिना भी अर्थ में ग्राह्य एवं ज्ञान में ग्राहकभाव सम्पादित हो जाता है ।" विषयज्ञान का ज्ञान भी ताद्रूप्य के बिना ही संभव होता है । १०० ९२. प्राविज्ञानोत्पत्तेरर्थमनवबुद्ध्यमानाः कारणमकारणं वा कथं ब्रुयुः । -लघीयस्त्रयवृत्ति, अकलङ्कग्रंथत्रय, पृ० १९.१० ९३. स्वहेतुजनितोऽप्यर्थः परिच्छेद्यः स्वतो यथा ।
तथा ज्ञानं स्वहेतूत्वं परिच्छेदात्मकं स्वतः ॥ -लघीयस्त्रय, ५९
९४. ततस्तदुत्पत्तिमन्तरेणापि ग्राह्यग्राहक भावसिद्धिः स्वभावतः स्यात् । - लघीयस्त्रयवृत्ति, अकलङ्कग्रंथत्रय, पृ० २०.१९ ९५. नार्थसारूप्यभृद्द्द्विज्ञानम् अमूर्तत्वात् । मूर्ता एव हि दर्पणादयः मूर्तमुखादिप्रतिबिम्ब धारिणो दृष्टाः नामूर्त मूर्तप्रतिबिम्ब भृत्
अमूर्तं च ज्ञानं मूर्तिधर्माभावात् । - लघीयस्त्रयवृत्ति, अकलङ्कग्रंथत्रय, पृ० २०.९-११
९६. न हि ज्ञानेऽर्थोऽस्ति तदात्मको वा येन तस्मिन् प्रतिभासमाने प्रतिभासेत शब्दवत् । - लघीयस्त्रयवृत्ति, अकलङ्कग्रंथत्रय, पृ० २०११-१२
९७. न तज्जन्म न ताद्रूप्यं न तद्व्यवसितिः सह ।
प्रत्येकं वा भजन्तीह प्रामाण्यं प्रति हेतुताम् ॥-लघीयस्त्रय, ५८
९८. सारूप्येऽपि समन्वेति प्रायः सामान्यदूषणम् । - न्यायविनिश्चय, १.२८
९९. प्रकाशनियमो हेतोर्बुद्धेर्न प्रतिबिम्बतः ।
अन्तरेणापि ताद्रूप्यं ग्राह्यग्राहकयोः सतोः ॥ - न्यायविनिश्चय, १.३३ १००. विषयज्ञानतज्ज्ञानविशेषोऽनेन वेदितः ।
ग्राह्यभेदो न संवित्ति भिनत्याकारभङ्ग्यपि ॥ - न्यायविनिश्चय, १.३८
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