Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 399
________________ ३६८ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा कथञ्चित् भेद स्वीकार करते हैं। हेमचन्द्राचार्य ने अवश्य धर्मकीर्ति के अनुसार प्रमाण एवं फल में व्यवस्थाप्य एवं व्यवस्थापक भाव बतलाया है। किन्तु हेमचन्द्राचार्य के पूर्व जैनदार्शनिकों ने इसका खण्डन किया है । जैन दार्शनिकों ने बौद्ध सम्मत साकारवाद, अर्थाकारवाद अथवा सारूप्यवाद का प्रबल खण्डन कर उसे प्रतिकर्मव्यवस्था के लिए वृथा सिद्ध किया है। अर्थकारणता एवं अर्थाकारता (अर्थसारूप्य) का निरसन जैन दार्शनिकों ने ज्ञान को साकार मानकर भी उसे अर्थाकार स्वीकार नहीं किया है । वे अर्थ को ज्ञान की उत्पत्ति में कारण भी नहीं मानते हैं, तथा अर्थाकारता अर्थात् अर्थसारूप्य को प्रतिनियत-व्यवस्था में प्रमाण भी स्वीकार नहीं करते हैं । जैनदार्शनिकों का मन्तव्य है कि ज्ञानावरण के क्षयोपशम से स्वयं ज्ञान में ऐसी योग्यता होती है कि वह प्रतिनियत अर्थ का प्रकाशक होता है। जिस प्रकार दीपक घट के आकार को ग्रहण किये बिना घट को प्रकाशित करता है उसी प्रकार ज्ञान भी बाह्य अर्थ का आकार ग्रहण किये बिना ही उसका प्रकाशन कर देता है। अर्थका आकार ग्रहण न करने की दृष्टि से जैन दार्शनिकों ने ज्ञान को निराकार कहा है । ज्ञानावरण कर्म का पूर्णक्षय होने पर जैनदर्शन के अनुसार बिना इन्द्रियों के, जगत् के समस्त पदार्थों का स्वतः ज्ञान हो जाता है तथा क्षयोपशम (पूर्णक्षय नहीं) होने पर इन्द्रियादि के माध्यम से पुरोवर्ती बाह्यार्थ का ज्ञान होता है उसके लिए यह आवश्यक नहीं कि ज्ञान में बाह्य अर्थ का आकार प्रतिबिम्बित हो । इसलिए जैन दार्शनिक बौद्ध सम्मत साकारज्ञानवाद को प्रमाण एवं प्रमिति के व्यवस्थापन के लिए आवश्यक नहीं मानते हैं । जैनदार्शनिक अकलङ्क, विद्यानन्द, वादिराज, अभयदेवसूरि, एवं प्रभाचन्द्र द्वारा किया गया साकारवाद या अर्थाकारता के खण्डन की चर्चा यहां संक्षेप में प्रस्तुत है। अकलङ्क-अकलङ्कने यह प्रतिपादित किया है कि ज्ञान स्वयं अपनी शक्ति से अर्थ का प्रतिनियत व्यवस्थापक होता है,उसके लिए अर्थ को कारण मानना आवश्यक नहीं है । वे ज्ञान की अर्थाकारता का तो निरास करते ही हैं, साथ ही ज्ञान के उत्पन्न होने में उसकी कारणता का भी निरसन करते हैं। ७७. द्रष्टव्य, न्यायविनिश्चयविवरण, भाग-१, पृ०९ ७८. एकज्ञानगतत्वेन प्रमाणफलयोरभेदो, व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावात्तु भेद इति भेदाभेदरूपः ।-प्रमाणमीमांसावृत्ति, १.१.३७, पृ०३० ७९. जैनागमों में एवं दर्शनग्रन्थों में ज्ञान को साकार एवं दर्शन को निराकार कहा गया है, यथा - (१) सागारे से जाणे भवति अणागारे से दंसणे भवति ।-प्रज्ञापनासूत्र , पद ३०, सूत्र ६६३ (२) साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमिति ।-सर्वार्थसिद्धि, २.९ ८०.(१) स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थ व्यवस्थापयति ।- परीक्षामुख, २.९ (२) प्रत्यर्थमावरणविच्छेदापेक्षया ज्ञानस्य परिच्छेदकत्वात्।-लघीयस्वयवृत्ति, ५६, अकलमंथनय, पृ० १९.२० ८१. अतजन्यमपि तताकाशकं प्रदीपवत्।-परीक्षामुख, २.८ ८२. सर्वप्रकाशसामर्थ्य ज्ञानावरणसंक्षयात् ।-न्यायविनिश्चय, ३५९ ८३.(१) तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्। तत्त्वार्थसत्र, १.१४ (२) यथास्वं कर्मक्षयोपशमापेक्षिणी करणमनसी निमित्तं विज्ञानस्य न बहिरादयः ।-लघीयस्त्रयवृत्ति, ५७,अकलङ्क - धत्रय, पृ०१९.२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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