Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
जैनदर्शन में व्याप्ति
जैनदार्शनिकों का व्याप्ति के स्वरूप को लेकर बौद्धों से कोई मतभेद नहीं है । व्याप्ति का जो स्वरूप बौद्ध दार्शनिक निरूपित करते हैं वही स्वरूप जैन दर्शन में प्रतिपादित है । जैन दार्शनिकों ने व्याप्ति को अविनाभावनियम, एवं अन्यथानुपपत्तिनियम के रूप में अभिव्यक्त किया है। माणिक्यनन्दी के पूर्व जैन दर्शन में व्याप्ति के लक्षण का स्पष्ट प्रतिपादन नहीं है । सिद्धसेन, अकलङ्क विद्यानन्द आदि दार्शनिकों के हेतु-लक्षण का अध्ययन करने से विदित होता है कि वे साध्य एवं हेतु के अविनाभाव नियम को ही व्याप्ति मानते हैं।२६४ हेतु साध्य के अभाव में निश्चित रूपसे नहीं रहता है,अर्थात् हेतु एवं साध्य के मध्य ऐसा अव्यभिचरित सम्बन्ध है कि जिससे हेतु साध्य का गमक होता है। उनके मध्य रहा हुआ अव्यभिचरित सम्बन्ध या अविनाभाव नियम ही अकलङ्क आदि के मत में व्याप्ति का स्वरूप माना जा सकता है। __माणिक्यनन्दी ने व्याप्ति का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है- “यह इसके होने पर ही होता है, इसके नहीं होने पर नहीं ही होता।" अर्थात साध्य के होने पर ही हेतु का होना तथा,साध्याभाव में हेतु का न होना ही व्याप्ति है । यथा अग्नि के होने पर ही धूम होता है,उसके अभाव में धूम निश्चितरूप से होता ही नहीं है ।२६५ वादिदेवसूरि ने साध्य एवं साधन के त्रैकालिक सम्बन्ध को व्याप्ति माना है।२६६ रत्नप्रभ ने गम्य-गमक रूप साध्य-साधन के अविनाभाव सम्बन्ध को व्याप्ति कहा है ।२६७ धर्म-भूषण ने उसे साध्य एवं साधन में गम्य-गमक भाव का प्रयोजक कहते हुए व्यभिचार-शून्य सम्बन्ध विशेष बतलाया है । २६८ आचार्य हेमचन्द्र ने बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति के व्याप्तिलक्षण को जैन व्याप्ति लक्षण के रूप में प्रस्तुत किया है । यथा-"व्याप्य के होने पर व्यापक का होना ही तथा व्यापक के होने पर ही व्याप्य का होना व्याप्ति है ।२६९ अर्थात् हेतु के होने पर साध्य का निश्चित रूप से होना तथा साध्य के होने पर ही हेतु का होना व्याप्ति है । व्याप्ति का यह लक्षण ही जैनदर्शन में हेतु के लक्षण का निर्धारक बना है। जैन दर्शन का हेतुलक्षण,व्याप्ति अथवा अविनाभाव नियम के लक्षण पर आधारित है। उसमें त्रैरूप्य एवं पांचरूप्य की चर्चा नहीं करके सीधे साध्य से अविनाभावित्व स्वीकार किया गया है । अविनाभावित्व या व्याप्ति के बल से ही हेतु साध्य का गमक होता है।
जैन दार्शनिकों ने मात्र तादात्म्य एवं तदुत्पत्ति से व्याप्ति का होना स्वीकार नहीं किया है। उनके अनुसार कृत्तिकोदय हेतु से शकटोदय साध्य का ज्ञान, तुला के एक पलड़े के ऊपर उठने से दूसरे २६४. साध्यार्थाऽ सम्भवाभावनियमनिश्चयैकलक्षणो हेतुः ।-प्रमाणसङ्ग्रहवृत्ति, २१ २६५.इदमस्मिन् सत्येव भवत्यसतिन भवत्येवेति च । यथाऽग्नावेवधूमस्तदभावेन भवत्येवेति च ।-परीक्षामुख,३.८-९ २६६. प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.७ २६७.कालत्रयीवर्तिनोःसाध्यसाधनयोर्गम्यगमकयोः सम्बन्धोऽविनाभावो व्याप्तिः।- रत्नाकरावतारिका, भाग-२, पृ.२० २६८.साध्यसाधनयोगम्यगमकभावप्रयोजको व्यभिचारगन्धासहिष्णुः सम्बन्धविशेषो व्याप्तिरविनाभावः ।-न्यायदीपिका,
२६९. व्याप्तिापकस्य व्याप्ये सति भाव एवं व्याप्यस्य वा तत्रैव भावः।-प्रमाणमीमांसा,१.२.६
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