Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार
३५१
में ही होता है। समीक्षण ___अपोहवाद बौद्ध दर्शन का चर्चित सिद्धान्त है। धीरेन्द्र शर्मा, ३०२ सात्कड़ि मुकर्जी ३०३ के. कंजन्नी राजा ३०४ गोविन्द चन्द्र पाण्डे ३०५ आदि आधुनिक चिन्तकों ने भी अपोहवाद पर विचार किया है । बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित अपोह उद्योतकर, कुमारिल भट्ट, वाचस्पतिमिश्र, उदयन आदि के ग्रंथों में खण्डित हुआ है, फलस्वरूप इसमें यथाकाल संशोधन एवं परिवर्तन भी होता रहा है । रत्नकीर्ति द्वारा शब्द को अपोहविशिष्ट विधि का वाचक मानना इसका स्पष्ट निदर्शन है। __ अपोहवाद के निरसनार्थ जैन दार्शनिकों ने जो तर्क दिये हैं वे कुमारिलभट्ट, वाचस्पतिमिश्र आदि से प्रभावित हैं, तथापि जैन दार्शनिकों का शब्द एवं अर्थ के सम्बन्ध में इन दर्शनों से भिन्न मन्तव्य है । मीमांसा दर्शन में शब्द व अर्थ का नित्य एवं वास्तविक सम्बन्ध माना गया है। नैयायिकों ने इसे संकेतग्राही एवं अनित्य सम्बन्ध माना है जबकि जैन दार्शनिकों ने शब्द का अर्थ के साथ योग्यता सम्बन्ध स्वीकार किया है । शब्द से अर्थ को जानने के सम्बन्ध में जैन दार्शनिकों ने नय एवं निक्षेप का भी विस्तृत प्रतिपादन किया है। ___ यह मानना अधिक उपयुक्त होगा कि प्रत्येक शब्द जिस प्रकार विधि अर्थ का वाचक होता है, उसी प्रकार वह उससे अन्य का अपोह भी करता है,तथा अन्य का अपोह या अतद्व्यावृत्ति करता हुआ विधि या तद् का वाचक भी होता है,क्योंकि मात्र अन्यापोह से शब्द द्वारा विवक्षा का ज्ञान नहीं हो सकता । अन्यापोह में अनवस्था दोष आता है,और कहीं न कहीं जाकर शब्द का वाच्य अर्थ मानना आवश्यक हो जाता है । विधिपरक अर्थ भी पर्याप्त नहीं है,क्योंकि तद्भिन्न की व्यावृत्ति करके ही कोई शब्द अपने वाच्य अर्थ का सम्यक् ज्ञान करा सकता है,अन्यथा नहीं।.
३०२. The Differentiation theory of Meaning in Indian Logic. ३०३. The Buddhist Philosophy of Universal flux, pp. 107-49 ३०४. Theory of Meaning according to the Buddhist Logicians, अडयार लाइबेरी, बुलेटिन । ३०५. अपोहसिद्धि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org