Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
नहीं हो सकेगी। यदि शब्द विकल्प द्वारा अनर्थ में अर्थ का अध्यवसाय करने से बाह्यार्थ में प्रवृत्ति होती है तो यह अर्थाध्यवसाय क्या है ? बाह्यार्थ को ग्रहण करना अध्यवसाय है तो यह पर मत को सिद्ध करता है,क्यों कि बौद्धों को तो शब्दज्ञान द्वारा बाह्य अर्थ का ग्रहण अभीष्ट नहीं है। यदि अर्थाध्यवसाय का अर्थ कारण है तो यह भी अनुपपन्न है,क्योंकि अर्थ तो अपनी सामग्री से उत्पन्न होते हैं,ज्ञान से नहीं । यदि ज्ञानमात्र से ही अर्थ उत्पन्न होने लगे तो सबको समस्त अर्थ प्राप्त हो जायें
और व्यक्ति अदरिद्र हो जाय । यदि स्वाकार को बाह्यार्थ से जोड़ना अध्यवसाय है तो यह भी उचित नहीं है,क्योंकि ऐसी प्रतीति नहीं होती है । यदि बाह्यार्थ को स्वाकार में आरोपित करना अध्यवसाय है तो यह भी अनुचित है,क्योंकि बाह्यार्थ एवं स्वाकार का पृथक् पृथक् ज्ञान हुए बिना एक का दूसरे पर आरोप नहीं हो सकता । दोनों का ज्ञान न निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से हो सकता है और न सविकल्पक से। अतः शब्दविकल्प बाह्यार्थ का स्वाकार में अथवा स्वाकार का बाह्यार्थ में आरोप नहीं कर सकता ।३०० बौद्ध - शब्द के द्वारा बुद्धि में अर्थ का प्रतिबिम्ब उत्पन्न होता है । वह प्रतिबिम्ब शब्द का वाच्य होता है । दूसरे शब्दों में शब्द कारण होता है तथा अर्थप्रतिबिम्ब कार्य होता है । अतः वाच्यवाचक भाव को कार्यकारण रूप मानना चाहिए। प्रभाचन्द्र - गो,घट,पट आदि विशिष्ट शब्द संकेतों से बाह्य गो,घट,पट आदि का ज्ञान होता देखा गया है,ज्ञान होने के पश्चात् इनमें प्रवृत्ति एवं प्राप्ति भी देखी गयी है । अतः शब्द के द्वारा बाह्यार्थ को वाच्य मानना ही उचित है,अर्थप्रतिबिम्ब मात्र विकल्प को नहीं,क्योंकि ज्ञान में अर्थप्रतिबिम्ब की शब्द से वाच्य के रूप में प्रतीति नहीं होती है। शब्द को अर्थप्रतिबिम्ब रूप विकल्प का कारण एवं वाचक मानने पर परम्परा से स्वलक्षण को भी उसका कारण एवं वाचक मानना होगा जो बौद्धों को इष्ट नहीं है।३०१
इस प्रकार बौद्धों की यह मान्यता खण्डित हो जाती है कि बुद्धि में अर्थ प्रतिबिम्ब का होना मुख्य अन्यापोह है तथा विजातीय से व्यावृत्ति एवं अन्य स्वलक्षणों से व्यावृत्ति औपचारिक अन्यापोह है, क्योंकि शब्द का वाच्य सामान्यविशेषात्मक बाह्यार्थ होता है.अन्यापोह नहीं । प्रतिनियत शब्दों से प्रतिनियत अर्थ की प्रतीति एवं प्रवृत्ति देखी गयी है । अतः शब्द-ज्ञान का विषय सामान्यविशेषात्मक रूप वस्तुभूत अर्थ है । जैन दर्शन में सामान्य' नामक कोई पृथक् तत्त्व नहीं है,जो सभी व्यक्तियों में अन्वित हो,अपितु व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न सदृश गुणधर्म ही सामान्य हैं जो प्रत्येक व्यक्ति या विशेष में विद्यमान रहते हैं । दीपक से लेकर आकाश तक समस्त पदार्थ जैन दर्शन में सामान्यविशेषात्मक हैं ,केवल सामान्य या केवल विशेष नहीं,क्योंकि समस्त वस्तुओं का ज्ञान सामान्य विशेषात्मक रूप
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३००. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ.५५८-५६० ३०१. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ. ५५७५५८
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