Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 384
________________ प्रमेय ,प्रमाणफल और प्रमाणाभास ३५३ सामान्यलक्षण पररूप भेद है । उसके द्वारा अर्थक्रिया सम्पन्न नहीं होती, इसलिए उसे अवस्तु कहा गया है, किन्तु वह स्वलक्षण- प्राप्ति में सहायक होने के कारण प्रमेय माना गया है अथवा संवृतिसत् कहा गया है। स्वलक्षण जो अर्थक्रिया करने में समर्थ होता है वही स्वलक्षण है।' स्वलक्षण को ही धर्मकीर्ति ने परमार्थसत् कहा है। वही वस्तु भी है ,क्योंकि वस्तु ही अर्थक्रिया करने में समर्थ होती है । अर्थक्रिया-सामर्थ्य क्या है ? इसका धर्मोत्तर ने स्पष्ट प्रतिपादन करते हुए कहा है कि जिसकी अर्थना की जाती है वह अर्थ है । वह हेय एवं उपादेय के रूप में दो प्रकार का होता है । हेय अर्थ को छोड़ा जाता है तथा उपादेय अर्थ को ग्रहण किया जाता है। हान एवं उपादान रूप प्रयोजन की क्रिया या निष्पत्ति अर्थक्रिया है तथा उसमें शक्तियुक्त होना अर्थक्रियासामर्थ्य कहलाता है। स्वलक्षण, अर्थक्रिया में समर्थ होता है, इसलिए वह वस्तु एवं परमार्थसत् कहा जाता है।' - स्वलक्षण को बाह्यार्थ के रूप में स्वीकार करते हुए धर्मकीर्ति ने न्यायविन्दु में उसे इस प्रकार परिभाषित किया है - 'जिस अर्थ के सन्निधान अथवा असन्निधान से ज्ञान के प्रतिभास में स्फुटता या अस्फुटता का भेद होता है वह स्वलक्षण है। धर्मोत्तर कहते हैं कि स्वलक्षण, वस्तु का असाधारण स्वरूप होता है। मोक्षाकरगुप्त ने स्वलक्षण को देश,काल एवं आकार में नियत बतलाया है तथा कहा है कि जो उदक लाने में समर्थ घटादि अर्थ हैं वे देश, काल एवं आकार में नियत रहकर प्रत्यक्ष द्वारा गृहीत होकर प्रवृत्ति का विषय बनते हैं तथा वे नित्यत्व आदि धर्मों से उदासीन रहकर विजातीय (पटादि) एवं सजातीय (घटादि) अर्थों से व्यावृत्त होते हैं,अतःस्वलक्षण कहे जाते हैं। मोक्षाकरगप्त के द्वारा प्रदत्त यह स्वलक्षणस्वरूप बौद्ध-चिन्तन में उत्तरकाल की परिणति है अतः बौद्धमत में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। शान्तरक्षित ने प्रतिपादित किया है कि स्वलक्षण अर्थ सजातीय एवं विजातीय अर्थों से व्यावृत्त १. तत्र यदर्थक्रियासमर्थ तदेव वस्तु स्वलक्षणमिति ।-प्रमाणसमुच्चयटीका, पृ.६ २. अर्थक्रियासमर्थ यत् तदत्रपरमार्थसत् ।- प्रमाणवार्तिक, २.३ ३. अर्थक्रियासामर्थ्य लक्षणत्वाद् वस्तुन: ।-न्यायबिन्दु, १.१५ ४. अर्थ्यत इत्यर्थः । हेय उपादेयश्च । हेयो हि हातुमिष्यते,उपादेयधोपादातुम् । अर्थस्य प्रयोजनस्य क्रिया निष्पत्तिः । तस्यां सामय शक्तिः । तदेव लक्षणं रूपं यस्य वस्तुन : तद् अर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणम्।-न्यायबिन्दुटीका, १.१५, पृ.७८ ५. वस्तुशब्द: परमार्थपर्याय: ।-न्यायबिन्दुटीका, पृ.७८ ६. यस्यार्थस्य सन्निधानासन्निन्धानाम्यां ज्ञानप्रतिभासभेदस्तत् स्वलक्षणम् ।-न्यायविन्द १.१३ ७. स्वमसाधारणलक्षणं तत्त्वं स्वलक्षणम् ।-न्यायविन्दुटीका, १.१२, पृ.६९ ८. स्वलक्षणमित्यसाधारणं वस्तुरूपं देशकालाकारनियतम् ।- तर्कभाषा (मोक्षाकरा पृ. ११.१० ९. घटादिरुदकाधाहरणसमथोऽथों देशकालाकारनियतः पुरः प्रकाशमानोऽनित्यत्वाधनेकधमोंदासीनप्रवृत्तिविषयो विजातीयसजातीयव्यावृत्त: स्वलक्षणमित्यर्थ: ।- तर्कभाषा (मोक्षाकर) पृ. ११.११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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