Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 387
________________ ३५६ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा ५. स्वलक्षण अर्थ प्रत्यक्ष का विषय होता है जबकि सामान्यलक्षण अर्थ अनुमान प्रमाण का विषय बनता है। ६.स्वलक्षण अर्थ संकेतस्मरण से अनपेक्ष प्रतिपत्ति वाला होता है,जबकि सामान्यलक्षण की प्रतिपत्ति संकेतस्मरण के सापेक्ष होती है। ७.स्वलक्षण अर्थ सनिधान एवं असत्रिधान से स्फुट या अस्फुट रूप प्रतिभास भेद का जनक होता है जबकि सामान्यलक्षण अर्थ इस भेद का जनक नहीं होता। विज्ञानवाद में प्रमाण, प्रमेय एवं फल-व्यवस्था दिइनाग, धर्मकीर्ति आदि दार्शनिक मूलतः विज्ञानवादी विचारधारा के दार्शनिक थे। अतः उन्होंने प्रमाण-प्रमेय की व्यवस्था को विज्ञानवाद में भी घटित करने का प्रयास किया है । धर्मकीर्ति ने दिड्नाग के प्रमाणसमुच्चय पर प्रमाणवार्तिक की रचना करते हुए यह स्पष्ट प्रतिपादित किया है कि अर्थ एवं ज्ञान के सहोपलम्भ नियम के आधार पर विज्ञानवाद में भी अर्थाकारता एवं ज्ञानाकारता इन दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ज्ञान ही विकल्प वासना के कारण ग्राह्य एवं ग्राहक भेद को ग्रहण कर लेता है ।२° परमार्थतः ज्ञान अविभागी है तथापि उसमें बाह्यार्थ प्रत्यक्ष की भांति प्रमाण, प्रमेय एवं फल की व्यवस्था की जा सकती है।२१ मनोरथनन्दी कहते हैं कि ज्ञान का ग्राह्याकार रूप प्रमेय होता है,ग्राहकाकाररूप प्रमाण होता है तथा ज्ञान फलरूप होता है ।२२ जैन दार्शनिकों ने विज्ञान से पृथक बाह्यार्थ की सत्ता स्वीकार की है,अतः वे ज्ञान में स्वसंवेदन स्वीकार करते हुए भी ज्ञान को आत्मप्रकाशक की भांति अर्थप्रकाशक भी स्वीकार करते हैं । यही कारण है कि जैनदार्शनिकों ने विज्ञानवाद एवं उसमें प्रतिपादित प्रमाण,प्रमेय एवं फलव्यवस्था का मूलोच्छेदन किया है । अकलङ्क, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, वादिराज, अभयदेव, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि आदि सभी मूर्धन्य जैनदार्शनिकों ने विज्ञानवाद के निरसनार्थ लेखनी चलायी है, जो स्वतन्त्र रूप से एक शोध-प्रबन्ध का विषय बन सकती है, किन्तु विस्तार भय से इसकी चर्चा यहां करना संभव नहीं १९.(१) द्वैरूप्यं सहसंवित्तिनियमात् तच्च सिध्यति ।-प्रमाणवार्तिक, २.३९८ (२) विज्ञानवाद की सिद्धि में नील एवं नीलज्ञान के सहोपलम्भ का प्रतिपादक एक वाक्य प्रसिद्ध है, जो बौद्धेतर ग्रंथों में भी अनेकत्र उद्धृत है -सहोपलम्पनियमादभेदो नीलतद्धियोः । २०. अविभागोऽपि बुद्यात्मविपर्यासितदर्शनैः । ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ॥-प्रमाणवार्तिक, २.३५४ २१. यथानुदर्शनं चेयं मेयमानफलस्थितिः । क्रियते विद्यमानापि ग्राह्यग्राहकसंविदाम् ॥-प्रमाणवार्तिक, २.३५७ २२. ग्राह्याकारो मेयः, ग्राहकाकारो मानम्, संवित्तिः फलमिति व्यवस्थाप्यते ।-मनोरचनन्दिवृत्ति, प्रमाणवार्तिक, २.३५७, पृ. २०६ २३. द्रष्टव्य, अनेकान्तजयपताका, भाग-२, पृ. १-२०, सिद्धिविनिश्चयटीका, भाग-२ , पृ. ४१६,७४३, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१,पृ. २१४-२५०,न्यायविनिश्चयविवरण, पृ.३५-३९,स्याद्वादमारी, पृ.१७६ अकलङ्कअंधत्रय, प्रस्तावना, पृ.७८ आदि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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