Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 386
________________ प्रमेय ,प्रमाणफल और प्रमाणाभास ३५५ गया है - स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण।१४ सामान्यलक्षण विषय के द्वारा भी स्वलक्षण अर्थ को उसी प्रकार प्राप्त किया जा सकता है जिस प्रकार कि मणिप्रभा को मणि समझकर उसकी ओर दौडने वाला पुरुष वहां पर मणि को प्राप्त करने में सफल होता है ।१५ संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि सामान्यलक्षण प्रमेय के द्वारा भी अर्थक्रियासामर्थ्य से युक्त स्वलक्षण अर्थ को प्राप्त किया जाता है, इसलिए सामान्यलक्षण भी संवृतिसत् रूप में एक प्रमेय है । सामान्यलक्षण की प्रतीति निर्विकल्पक नहीं होती। वह अवस्तु रूप होता है,क्योंकि वह शब्दों द्वारा अभिधेय होता है।१६ घट, वह्नि आदि शब्दों का प्रयोग सामान्यलक्षण अर्थ में ही होता है, स्वलक्षण अर्थ में नहीं । वस्तुतः स्वलक्षण-सन्तान में रहा हुआ साधारणरूप ही सामान्यलक्षण प्रमेय है। यह स्वलक्षण सन्तान में साधारणरूपेण आरोपित किया जाता है, आरोपित होने से तथा सकल अग्नि में या समस्त घटों में साधारण होने के कारण इसे सामान्यलक्षण कहा गया है । सामान्यलक्षण अर्थ के सन्निधान या असन्निधान से ज्ञान के प्रतिभास में स्फुटता के रूप में भेद नहीं होता है ।१७ स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण में भेद स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण विषयों में मुख्य रूप से निम्नाङ्कित भेद किये जा सकते हैं.१८ १.स्वलक्षण विषय अर्थक्रिया में समर्थ होता है ,इसलिए वह परमार्थसत् है। सामान्यलक्षण विषय अर्थक्रिया में समर्थ नहीं होता है तथापि व्यवहार में अविसंवादक होने से वह संवृतिसत् है। २.स्वलक्षण विषय का शब्दों के द्वारा कथन नहीं किया जा सकता ,जबकि सामान्यलक्षण विषय का शब्दों के द्वारा कथन किया जा सकता है । घट,वह्नि आदि शब्दों का प्रयोग सामान्यलक्षण में ही होता है,स्वलक्षण में नहीं। ३.स्वलक्षण विषय सर्वतो व्यावृत्त होने से असदृश अथवा असाधारण होता है,जबकि सामान्यलक्षण विषय में विजातीयव्यावृत्ति होने से सदृशता पायी जाती है । ४.विषय से भिन्न निमित्त के मिलने पर भी सामान्यलक्षण का ज्ञान हो सकता है, किन्तु स्वलक्षण का नहीं। - १४. (i) मेयं त्वेकं स्वलक्षणम् ।- प्रमाणवार्तिक, २.५३ (ii) तस्य स्वपररूपाभ्यां गतेयद्वयं मतम् ।- प्रमाणवार्तिक,२.५४ १५. प्रमाणवार्तिक, २.५७, द्रष्टव्य, द्वितीय अध्याय, पादटिप्पण, ३६ १६.न तद् वस्त्वभिधेयत्वात् ।-प्रमाणवार्तिक,२.११ १७. तस्य समारोपितस्य सत्रिधानाद् असत्रिधानाच्च ज्ञानप्रतिभासस्य न भेद : स्फुटत्वेनास्फुटत्वेन वा ।- न्यायबिन्दुटीका, .१.१६. पृ.७९ १८.(१) शक्त्यशक्तित: अर्थक्रियायाम् ।- प्रमाणवार्तिक, २.१ (२) सदृशासदृशत्वाच्च विषयाविषयत्वत: । शब्दस्यान्यनिमित्तानां भावे धीसदसत्त्वत: ॥-प्रमाणवार्तिक, २.२ (३) द्रष्टव्य, प्रमाणवार्तिक २.३, २७-२८,५०-५१ भी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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