Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह - विचार
प्रत्यक्ष या प्रत्यभिज्ञान द्वारा होना संभव है ।
स्मृति को वैशेषिक दर्शन में प्रत्यक्षादि ज्ञानों के परतन्त्र होने से पृथक् प्रमाण नहीं माना गया, किन्तु परतन्त्रता तो अनुमान में भी रहती है। अनुमान भी पूर्वप्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात लिङ्ग-लिङ्गी ज्ञान के आश्रित होता है। जैनदार्शनिक कहते हैं कि लिङ्ग एवं लिङ्गी की स्मृति के बिना अनुमान प्रमाण प्रवृत्त नहीं हो सकता। इसलिए स्मृति को प्रमाण स्वीकार किये बिना अनुमान को प्रमाण नहीं माना जा सकता। ऐसा कोई दार्शनिक नहीं हो सकता जो स्मृति का प्रामाण्य स्वीकार किये बिना लिङ्ग द्वारा लिङ्गी का ज्ञान कर सके । यह अवश्य है कि स्मृति के समय प्रमाता के समक्ष अर्थ विद्यमान नहीं रहता, एवं स्मृति प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात अर्थ में वैशिष्ट्य भी नहीं लाती, किन्तु स्मृति को स्व एवं अर्थ का प्रकाशक होने से, अर्थक्रिया में प्रवर्तक होने से, अविसंवादक व्यवहार का कारण होने से तथा व्यवसायात्मक ज्ञान रूप होने से प्रमाण माना जा सकता है। यद्यपि अकलङ्क, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र आदि दिगम्बर जैन दार्शनिकों ने काल-भेद से स्मृति को कथञ्चित् अपूर्व अर्थ का प्राही प्रतिपादित किया है, किन्तु वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र आदि श्वेताम्बर जैन दार्शनिक स्मृति के गृहीतग्राही होने पर भी उसे प्रमाण स्वीकार करते हैं। वस्तुतः स्मृति का प्रामाण्य प्रत्यक्ष द्वारा गृहीत अर्थ का तथाभूत ज्ञान कराने में ही उचित प्रतीत होता है नवीन या अपूर्व अर्थांश के ज्ञान की दृष्टि से स्मृति को प्रमाण मानना हमारे दैनिक व्यवहार में भी अव्यवस्था उत्पन्न कर सकता है। स्मृति ज्ञान में अविसंवादकता भी तभी घटित हो सकती है, जब वह प्रत्यक्ष आदि अन्य प्रमाणों द्वारा ज्ञात अर्थ का तथाभूत ज्ञान करा सके । प्रत्यभिज्ञान- प्रमाण
जैनदर्शन में प्रत्यभिज्ञान
जैन दार्शनिकों ने स्मृति की भांति प्रत्यभिज्ञान को भी परोक्ष प्रमाण स्वीकार किया है । प्रत्यभिज्ञान का स्वरूप है कि वह स्मृति एवं प्रत्यक्ष का संकलनात्मक ज्ञान होता है। अकलङ्क ने प्रत्यभिज्ञान के लिए संज्ञा, संज्ञान एवं प्रत्यभिज्ञा शब्दों का भी प्रयोग किया है। विद्यानन्द ने दो प्रकार के प्रत्यभिज्ञान का निरूपण किया है- एकत्व प्रत्यभिज्ञान एवं सादृश्य प्रत्यभिज्ञान । एकत्व प्रत्यभिज्ञान में पूर्वज्ञात अर्थ का प्रत्यक्ष होने पर "वही यह है” इस प्रकार एकता या एकरूपता का ज्ञान होता है । सादृश्यप्रत्यभिज्ञान में पूर्वज्ञात अर्थ के सदृश अन्य अर्थ का प्रत्यक्ष होने पर “उसके सदृश यह है” इस प्रकार का सादृश्य ज्ञान होता है । ९°
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माणिक्यनन्दी ने दर्शन (प्रत्यक्ष) एवं स्मृति से उत्पन्न संकलित ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहकर उसके अनेक उदाहरण दिये हैं, यथा- (१) यह वही देवदत्त है (२) गवय गाय के सदृश है (३) भैंस गाय से विलक्षण है (४) यह इससे दूर है आदि। इनमें प्रथम उदाहरण एकत्व प्रत्यभिज्ञान का तथा द्वितीय उदाहरण सादृश्य प्रत्यभिज्ञान का बोधक है। न्याय एवं मीमांसा दर्शनों में प्रतिपादित उपमान प्रमाण ९०. द्विविधं हि प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदमित्येकत्वनिबन्धनम्, तादृशमेवेदमिति सादृश्यनिबन्धनं च ।-प्रमाणपरीक्षा, पृ. ४२
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