Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 376
________________ स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार ३४५ है ।२७६ कुमारिल भट्ट ने अपोहवाद का निरसन एवं सामान्य का स्थापन करते हुए कहा है कि शाबलेय व्यक्ति का ज्ञान होने मात्र से बाहुलेय आदि में “गौ” प्रतिपत्ति नहीं हो सकती,इसलिए “गोत्व" नामक सामान्य मानना होगा,क्योंकि उसी से बाहुलेय आदि को भी हम “गौ” रूप में जानते हैं। उन्होंने बौद्ध प्रतिपादित अगोनिवृत्ति' में 'गौ' शब्द को शाबलेय बाहुलेय आदि विभिन्न गायों में सामान्य गोत्व' का प्रतिपादक माना है अन्यथा शाबलेय में संकेत ग्रहण करने पर अगोनिवृत्ति' शब्द के प्रयोग द्वारा बाहुलेय आदि गायों की भी निवृत्ति होने लगेगी। इसलिए यह कहा जा सकता है कि बौद्धों ने अगोनिवृत्ति के रूप में जो 'गौ' शब्द का वाच्य माना हैं वह 'गोत्व' सामान्य से भिन्न नहीं है ।२७७ अभयदेवसूरि ने कुमारिल,बौद्ध एवं व्यक्तिवादी (वैशेषिक) दार्शनिकों के मत का खण्डन करते हुए शब्द का वाच्य सामान्यविशेषात्मक अर्थ को सिद्ध किया है ।२७८ वे कहते हैं कि गोत्व सामान्य शाबलेय,बाहुलेयादि व्यक्तियों के बिना संभव नहीं है तथा शाबलेय,बाहुलेय आदि में भी कोई न कोई समानधर्म पाये जाने के कारण उनमें गोत्व की प्रतिपत्ति होती है। प्रभाचन्द्र का चिन्तन जैन दार्शनिक प्रभाचन्द्र ने भी अन्यापोह को पूर्वपक्ष में रखकर उसका विधिरूपेण निरसन किया हैं। उन्होंने अन्यापोह के निरसन में मीमांसा दार्शनिक कुमारिल भट्ट के श्लोकवार्तिक का यत्रतत्र आलम्बन लिया है। पूर्वपक्ष (बौद्धमत)-जो शब्द,अर्थ के सद्भाव में दिखाई देते हैं,वे अर्थ के अभाव में भी दिखाई देते हैं। अतः शब्दों की विधिपूर्वक अभिधायकता मानना उचित नहीं है। उनके द्वारा तो मात्र अन्यापोह का कथन किया जाता है। जैसा कि कहा है- “शब्द एवं लिङ्ग के द्वारा अपोह का कथन किया जाता है,विधिपूर्वक वस्तु का नहीं।२७९ ___ शब्द का विषय न स्वलक्षण है और न सामान्य । स्वलक्षण में शब्द संकेत ग्रहण नहीं कर पाते, क्योंकि स्वलक्षण व्यवहार-काल में नहीं रहता।२८° स्वलक्षण अर्थ का शब्द के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है,क्योंकि शब्द के प्रतिभासित होने पर अर्थ प्रतिभासित नहीं होता । दाह' शब्द को सुनने पर २७६. तत्त्वतस्तु न किंचिद् वाच्यमस्ति शब्दानामिति विधिरूपस्तात्त्विको निषिध्यते, तेन सांवृतस्य विधिरूपस्य शब्दार्थस्ये २७६. तत्त्वतस्तुनाबोधविधायिनी, पृ. २. कल्पितम् । पोहपरिच्छेद, १ २७७.(१) अगोनिवृत्ति : सामान्यं वाच्यं यै : परिकल्पितम् ।। गोत्वं वस्त्वेव तैरुक्तमगोपोहगिरा स्फुटम् ।-श्लोकवार्तिक, अपोहपरिच्छेद, १ (२) न शाबलेयविज्ञानमगोव्यावृत्तिबन्धनम् ।- श्लोकवार्तिक, अपोहपरिच्छेद५ २७८. तत्त्वबोधविधायिनी, पृ. २३७-२६५ २७९. अपोह: शब्दलिङ्गाम्यां न वस्तु विधिनोच्यते ।-दिङ्नाग, उदत, न्यायकुमुदचन्द्र, पृ. ५५१ २८० तुलनीय तत्र स्वलक्षणं तावन्न शन्दै: प्रतिपाद्यते । संकेतव्यवहाराप्तकालव्याप्तिवियोगतः ॥-तत्त्वसङ्ग्रह,८७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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