Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
संक्षेप में कहा जाए तो विद्यानन्द के अनुसार वही प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है जो अर्थ का ज्ञान होने के पश्चात् अर्थक्रिया में अविसंवादी होता है।
प्रत्यभिज्ञान अनुमान से पृथक् प्रमाण है । प्रत्यभिज्ञान के द्वारा लिङ्ग का प्रत्यवमर्श होता है। लिङ्ग प्रत्यवमर्श के बिना अनुमान नहीं किया जा सकता । अतःप्रत्यभिज्ञान,अनुमान से पृथक् प्रमाण है । यदि प्रत्यभिज्ञान को अनुमान कहा जायेगा तो उस अनुमान में लिङ्गप्रत्यवमर्श किससे होगा,यदि लिङ्गप्रत्यवमर्श के लिए भिन्न अनुमान की कल्पना की जायेगी तो अनवस्था दोष होगा। अतः प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष एवं अनुमान से भिन्न प्रमाण मानना उपयुक्त है । १२४
इस प्रकार विद्यानन्द एकत्व एवं सादृश्य प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष,स्मृति एवं अनुमान से पृथक प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं तथा उसे अविसंवादक एवं लिङ्गप्रत्यवमर्श का ग्राहक प्रमाण मानते
प्रभाचन्द्र और वादिदेवसूरि द्वारा स्थापन
प्रभाचन्द्र एवं वादिदेव सूरि ने अनेक तर्क उपस्थापित कर प्रत्यभिज्ञान का पृथक् प्रामाण्य सिद्ध किया है। उनके तर्क लगभग समान है । उन्होंने बौद्ध पक्ष को उपस्थापित करते हुए कहा है कि बौद्ध दार्शनिक प्रत्यभिज्ञान में 'वह' एवं 'यह' के विरुद्ध धर्मों का अध्यास होने से उसे प्रमाण नहीं मानते हैं। बौद्धों का कथन है कि “वह” के रूप में अस्पष्ट तथा 'यह' के रूप में स्पष्ट दो विरुद्ध धर्मों का प्रत्यभिज्ञान में अभेद होना युक्त नहीं है । वह एवं 'यह' यदि दोनों आकार एक दूसरे में प्रविष्ट होकर प्रतीत होते हैं तो दोनों में से एक ही आकार का प्रतिभास होना चाहिए तथा प्रविष्ट नहीं होने पर यह एवं वह दोनों की पृथक् प्रतीति होनी चाहिए। दूसरी बात यह है कि विरुद्ध धर्मों के कारण इनका एक अधिकरण भी नहीं हो सकता। तीसरी बात यह है कि बौद्ध दार्शनिक प्रत्यभिज्ञान की उत्पत्ति के कारण एवं उसके विषय का भी अभाव प्रतिपादित करते हैं । १२५
प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि ने बौद्ध मंतव्य का खण्डन करते हुए प्रतिपादित किया है कि विरुद्ध धर्माध्यास से प्रत्यभिज्ञान को असंभव कहना उचित नहीं है। धर्मों का धर्मी के साथ विरोध नहीं होता है,क्योंकि धर्मी में धर्मों की प्रतीति होती है। जो जिसमें प्रतीत होता है वह उससे विरुद्ध नहीं होता है, यथा चित्रज्ञान में नीलादि आकार प्रतीत होते हैं, अतः वे चित्रज्ञान के विरोधी नहीं होते हैं। इसी प्रकार प्रत्यभिज्ञान में वही' एवं 'यह' ये दोनों आकार प्रतीत होते हैं अतः वे प्रत्यभिज्ञान के विरोधी नहीं होते हैं। यदि इन धमों में पारस्परिक विरोध है तो उससे धर्मी में कोई परिवर्तन नहीं आता है जिससे प्रत्यभिज्ञान संभव न हो । प्रत्यभिज्ञान तो होता ही है। 'वह' एवं 'यह' इन दो आकारों का
१२४. लिङ्गप्रत्यवमशेण विना नास्त्येव लैङ्गिकम्।
विभिन्नः सोनुमानाच्चेत्रामाणान्तरमागतम् ।।- तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.५९ १२५.(१)न्यायकुमुदचन्द्र,पृ.४११-१३
(२) स्याद्वादरत्नाकर, पृ.४९१-९२
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