Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
प्रत्यभिज्ञान को एक पृथक् प्रमाण मानना चाहिए ।१२९ समीक्षण
सारांश यह है कि जैन दार्शनिक प्रत्यभिज्ञान को अविसंवादक,वास्तविक अर्थ का ग्राहक.स्व एवं अर्थ का निश्चायक तथा बाधक प्रमाण का अभाव होने से प्रमाण मानते हैं । अकलङ्क, विद्यानन्द एवं प्रभाचन्द्र ने प्रत्यभिज्ञान को कथञ्चित् अपूर्व अर्थ का ग्राही भी प्रतिपादित किया है। प्रत्यभिज्ञान के द्वारा जैन दार्शनिकों ने एकत्व,सादृश्य विलक्षणता एवं प्रतियोगिता के ज्ञान का प्रकाशन स्वीकार किया है। जो उपमान-प्रमाण द्वारा संभव नहीं है । उपमानप्रमाण से मात्र सादृश्य या संज्ञा संज्ञिसंबंध ही गृहीत होता है।
प्रत्यभिज्ञान स्मृति एवं प्रत्यक्ष पूर्वक होता है, इसलिए वह स्मृति एवं प्रत्यक्ष दोनों से भिन्न है। प्रायः हम जिन पदार्थों का प्रत्यक्ष करते हैं,वह प्रत्यभिज्ञान ही होता है,यथा पुस्तक,कलम,घर,पिता, पुत्र,पत्नी,आदि का प्रत्यक्ष प्रत्यभिज्ञानात्मक ही होता है। पूर्व स्मृति भी उसमें कार्य करती है। यदि स्मृति का अंश न रहे तो उस प्रत्यक्ष द्वारा सम्यक् प्रवृत्ति होना शक्य न हो । व्यवहार में प्रत्यक्ष एवं प्रत्यभिज्ञान में हम अन्तर ही नहीं कर पाते हैं। प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष जैसा ही भासता है, किन्तु प्रत्यक्ष से प्रत्यभिज्ञान का यही अन्तर है कि प्रत्यभिज्ञान में स्मृति निहित रहती है,जबकि प्रत्यक्ष में स्मृति का अंश नहीं होता।
तर्क-प्रमाण तर्क को प्रमाण की श्रेणि में प्रतिष्ठित करना भी जैन दार्शनिकों का भारतीय न्याय को अनूठा योगदान है। न्याय,वैशेषिक एवं बौद्ध दर्शनों ने तर्क को प्रमाण का उपग्राहक स्वीकार करके भी उसे प्रमाण नहीं माना है, किन्तु जैनदार्शनिकों ने तर्क की पृथक प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठा करने के साथ उसके स्वरूप का भी विकास किया है। सांख्य,मीमांसा एवं अद्वैत दर्शनों ने तर्क को पृथक् प्रमाण तो नहीं माना है,किन्तु उन्हें उसका अनुमान अथवा अर्थापत्ति प्रमाण में अन्तर्भाव अभीष्ट है। जैनदर्शन में तर्क का स्वरूप
जैनदर्शन में तर्क को व्याप्ति का ग्राहक एवं अवधारणात्मक ज्ञान स्वीकार किया गया है । भट्ट अकलङ्क के पूर्व जैनदर्शन में तर्क की पृथक् प्रमाण के रूप में स्थापना दिखाई नहीं देती । उमास्वाति के तत्वार्थसत्र में मतिज्ञान के पर्यायार्थक शब्दों में जिस 'चिन्ता' शब्द की गणना की गई है१३° उसे ही अकलङ्कने आगे चलकर लघीयसाय, न्यायविनिश्वय आदि ग्रन्थों में तर्कप्रमाण के रूप में विकसित एवं प्रतिष्ठित किया है । उन्होंने तर्क चिन्ता) को प्रत्यभिज्ञान प्रमाण का फल माना है तथा तर्क को प्रमाण मानकर अनुमान को उसका फल कहा है ।१३१ अष्टशती में उन्होंने लिङ्गलिङ्गिसम्बन्ध ज्ञान को १२९. प्रमाणमीमांसा, १.२.४. की वृत्ति १३०. मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनान्तरम् ।- तत्त्वार्थसूत्र, १.१३ ।। १३१. संज्ञा चिन्तायाः तर्कस्य । चिन्ता अभिनिबोधस्य अनुमानादेः ।-लषीयस्वयवृत्ति, अकलङ्कअन्यत्रय, पृ.५
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