Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 372
________________ स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार ३४१ आदि दार्शनिकों के ग्रंथों में मिलता है, किन्तु व्यवस्थित खण्डन प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि के ग्रंथों में प्राप्त होता है। यहां पर अकलङ्क, विद्यानन्द, अभयदेव, प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि कृत खण्डन प्रस्तुत है। अकलङ्कद्वारा निरसन ____ भट्ट अकलङ्क ने बौद्ध सम्मत अन्यापोह को पूर्व पक्ष में रखकर उसका विधिवत् खण्डन किया है। पूर्वपक्ष (बौद्धमत) -शब्द स्वलक्षण में संकेत ग्रहण नहीं करते हैं,क्योंकि स्वलक्षण में शब्दों द्वारा संकेत ग्रहण करना निष्फल रहता है । निष्फल इसलिए रहता है,क्योंकि जिस स्वलक्षण में संकेत ग्रहण किया जाता है वह स्वलक्षण पुनः इन्द्रियगोचर नहीं होता, अतः संकेत ग्रहण करना सार्थक नहीं रह पाता। शब्द स्वयं भी स्वलक्षण संकेत ग्रहण करने में अशक्त हैं ,क्योंकि शब्द एवं स्वलक्षण अर्थ भिन्न-भिन्न इन्द्रियों से गृहीत होते हैं,अतः इनमें संकेतग्रहण होना संभव नहीं है २५२ सामान्य में भी संकेत गृहीत नहीं हो सकता,क्योंकि सामान्य इन्द्रिय से दृष्टिगोचर नहीं होता है एवं वह अवस्तुरूप है अतः अर्थक्रिया में समर्थ नहीं है । २५३ शब्द असंकेतित अर्थ को भी नहीं कहते हैं । २५४ इसलिए शब्द संकेत अन्यापोह विषयक होता है । अन्यापोहविषयक शब्दज्ञान द्वारा पुरुष दृश्य स्वलक्षण एवं विकल्प्य शब्दज्ञानाकार को एकीभूत करके प्रमवश व्यवहार में प्रवृत्त होता है । २५५ उत्तरपक्ष- एक ओर बौद्ध स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण में शब्द द्वारा संकेत ग्रहण करने का प्रतिषेध करते है तो दूसरी ओर शब्द द्वारा असंकेतित अर्थ को कहने का भी निषेध करते हैं ।२५६जब शब्द असंकेतित अर्थ को नहीं कह सकता तथा स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण संकेत भी ग्रहण नहीं करता तो बौद्धों के द्वारा दिये गये सारे हेतु संकेताभाव में अनैकान्तिक सिद्ध होते है ।२५७ यदि स्वलक्षण अर्थों के असाधारण स्वभाव में संकेत ग्रहण करना संभव नहीं है तो उसी प्रकार स्वलक्षण अर्थ के असाधारण रूप का प्रत्यक्ष करना भी संभव नहीं है, क्योंकि जो असाधारण स्वलक्षण-क्षण प्रत्यक्षज्ञान का कारण बनता है वह कालभेद के कारण दृष्टि का विषय नहीं बनता.पूर्व २५२. अफलत्वादशक्तेश्च न संकेत्येरन् स्वलक्षणे ।-सिद्धिविनिश्चय,९.२२ २५३. सामान्येऽपि सुतरां न संकेत : तस्य दृष्टावप्रतिभासनात् सतोऽप्यक्रियाऽसामर्थ्यात् ।-सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, पृ. ६३३.७ २५४. वाचोऽसंकेतितं वाहु ।-सिद्धिविनिश्चय ९.२२ २५५. तदपोहविषय:संकेत : तद्विषयं शब्दज्ञानं विप्रमवशात् दृश्यविकल्प्यावेकीकृत्य पुरुष व्यवहारे नियुक्ते ।-सिद्धि विनिमय वृत्ति,९.२२,पृ.६३३.८ २५६. तुलनीय न चागृहीतसंकेतो गम्यतेऽन्य इव ध्वने: ।-तत्त्वसङ्ग्रह, ८७३ २५७. सिद्धिविनिश्चय, ९.२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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