Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 371
________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा के रूप में शान्तरक्षित ने उसे भावात्मक भी प्रतिपादित किया है। जिनेन्द्रबुद्धि ने अपोहवाद के पोषण में प्रतिपादित किया है कि हम अतद् का निषेध किये बिना तद् को नहीं जान सकते । भावात्मक रूप में भी हम 'गो' को जानना चाहें तो गौ से भिन्न अश्वादि की व्यावृत्ति करना आवश्यक हो जाता है । २४४ बौद्ध दार्शनिक रत्नकीर्ति (१० वीं शती) का मत है कि अपोह के द्वारा शब्द का केवल विधि रूप अर्थ अभिप्रेत नहीं है और न केवल अन्यव्यावृत्त रूप अर्थ अभिप्रेत है, अपितु अन्यव्यावृत्ति विशिष्ट विधि अर्थ अभिप्रेत है । २४५ ३४० शब्द के अतिरिक्त लिङ्ग (हेतु) द्वारा भी अपोह का ही प्रतिपादन किया जाता है, ऐसा दिङ्नाग का निर्देश है । २४६ धर्मकीर्ति ने स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि शब्द एवं विकल्प का विषय वस्तु नहीं हो सकता । उसका विषय सामान्यरूप में अन्यापोह होता है । २" I • २४७ .२४८ बौद्ध दार्शनिक वस्तुवादी दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित जाति, जातिवाद आदि का खण्डन कर 'अपोह' की स्थापना करते हैं, तथापि जाति की कुछ विशेषताएं अपोह में भी आ गयी है, यथा-एकत्व, नित्यत्व, प्रत्येक, परिसमाप्ति आदि । 'विभिन्न दार्शनिकों के मन्तव्यों से डी. एन. शास्त्री प्रतिपादित करते हैं कि 'जाति' की कल्पना भावात्मक है तथा 'अपोह' की कल्पना अभावात्मक अथवा निषेधात्मक, किन्तु दोनों के द्वारा अनुवृत्ति एवं व्यावृत्ति प्रतीति होने में कोई बाधा नहीं है । २४९ बौद्ध दर्शन के अपोहवाद का खण्डन न्याय, मीमांसा, वैशेषिक आदि समस्त वस्तुवादी दर्शनों द्वारा किया गया है। कुमारिल, वाचस्पतिमिश्र, जयन्त एवं श्रीधर के ग्रंथों में 'अपोह' सिद्धान्त का विस्तृत खण्डन किया गया है। २५० सर्वाधिक चर्चा कुमारिल भट्ट के श्लोकवार्तिक में मिलती है। २५१ जैनदर्शन में अपोहवाद का निरसन जैनदर्शन में अपोहवाद का खण्डन यूं तो अकलङ्क, हरिभद्र, विद्यानन्द, अभयदेव, प्रभाचन्द्र २४४. द्रष्टव्य, जिनेन्द्रबुद्धि की प्रमाणसमुच्चयटीका के अंश का अनुवाद, Buddhist Logic, Vol. 1, p. 461 २४५. नास्माभिरपोहशब्देन विधिरेव केवलो ऽभिप्रेतः नाप्यन्यव्यावृत्तिमात्रम् । किन्त्वन्यापोहविशिष्टो विधि : शब्दानामर्थः । -रत्नकीर्तिनिबन्धावलि, पृ. ५४ २४६. अपोह : शब्दलिङ्गाभ्यां प्रतिपाद्यते । प्रमाणवार्तिक (मनोरथनन्दिवृत्ति), पृ. २९९ पर उद्धृत २४७. तेनान्यापोहविषया: प्रोक्ता: सामान्यगोचरा: । शब्दाश्च बुद्धयश्चैव वस्तुन्येषामसम्भवात् । - प्रमाणवार्तिक, ३.१.३४-३५ २४८. आचार्य दिङ्नागेनोक्तम्- “सर्वत्राभेदादाश्रयस्यानुच्छेदात् कृत्स्नार्थपरिसमाप्तेश्च यथाक्रमं जातिधर्मा एकत्वप्रत्येकपरिसमाप्तिलक्षणा अपोह एवावतिष्ठन्ते । तत्त्वसङ्ग्रहपञ्जिका, पृ. ३८९ २४९. Critique of Indian Realism, p. 368 २५०. द्रष्टव्य, (१) मीमांसाश्लोकवार्तिक, अपोहवादपरिच्छेद (२) न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, कलकत्ता संस्कृत सीरीज, पृ. ६८३-८६ (३) न्यायमञ्जरी, बनारस, १९३६ पृ. २७९ (४) न्यायकन्दली, पृ. ७५६-७६५ २५१. (1) The refutation given by Kumarila is the longest and perhaps the most intricate, D.N. Shastri, Critique of Indian Realism, p. 363.4 (2) द्रष्टव्य, The Buddhist Philosophy as presented in Mimamsa slokavartika, Chapter VII. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482