Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
एक ही प्रमाण मानना चाहिए।
स्व एवं अर्थ का प्रकाशक होने से यदि अनुमान को प्रमाण कहा जाता है तो स्मृति भी स्व एवं अर्थ की प्रकाशक होती है, अतः उसे भी प्रमाण मानना चाहिए। अभिलाप आदि स्व एवं अर्थ के प्रकाशक नहीं होते हैं अतः उनका प्रामाण्य जैनों को भी अभीष्ट नहीं है । ६६
(४) स्मृति भी समारोप की व्यवच्छेदक होती है - समारोप का व्यवच्छेद करने के कारण यदि अनुमान प्रमाण है तो स्मृति भी समारोप का व्यवच्छेद करती है अतः उसे भी प्रमाण मानना चाहिए। संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय को जैन दार्शनिक समारोप कहते हैं। अनुमान प्रमाण जिस प्रकार इस समारोप से रहित होता है उसी प्रकार स्मृतिज्ञान भी इससे रहित होने के कारण प्रमाण है। स्मृतिज्ञान लिङ्ग से उत्पन्न ज्ञान नहीं है अर्थात् अनुमान से भिन्न ज्ञान है, क्योंकि यह लिङ्ग ज्ञान के अभाव में भी हो सकता है, साध्य एवं साधन के व्याप्ति-सम्बन्ध की स्मृति के समान । यदि व्याप्ति सम्बन्ध की स्मृति को लिङ्गजन्य अनुमान प्रमाण मानेंगे तो उस अनुमान प्रमाण के लिए अन्य अनुमान की आवश्यकता होगी और इस प्रकार अनवस्था दोष आ जायेगा । ६८
(५) स्मृति से साध्य एवं साधन में अविनाभाव - विद्यानन्द कहते हैं कि स्मृति को प्रमाण माने बिना साध्य एवं साधन में अविनाभाव सम्बन्ध सिद्ध नहीं किया जा सकता। यदि अप्रमाणभूत स्मृति से साध्य एवं साधन में अविनाभाव सम्बन्ध मानते हैं तो समस्त प्रमेय पदार्थों का निर्णय करने के लिए प्रमाणज्ञान निरर्थक हो जाता है । ६९ क्योंकि अप्रमाण से प्रमेय के सिद्ध होने पर प्रमाण की उपयोगिता नहीं रहती । अप्रमाण से यदि व्याप्तिज्ञान आदि कुछ प्रमेय सिद्ध हो जाते हैं तथा कुछ नहीं, तो अर्धजरतीन्याय ठीक नहीं है ।
यदि स्मृति के समय अर्थ (पदार्थ) विद्यमान नहीं रहने से स्मृति अप्रमाण है तो यह भी मानना समीचीन नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण में भी जिस स्वलक्षण का प्रत्यक्ष होता है वह प्राप्त नहीं होता । अतः उसे भी स्मृति के समान अप्रमाण मानने का प्रसंग आता है। ७०
यदि स्मृति ज्ञान अर्थ से उत्पन्न नहीं होता है इसलिए अप्रमाण है तो प्रत्यक्ष भी अर्थ से उत्पन्न नहीं होता है । अर्थ स्वलक्षण के समाप्त होने पर प्रत्यक्षज्ञान उत्पन्न होता है अतः वह भी अर्थ से ६६. स्वार्थप्रकाशकत्वेन प्रमाणमनुमा यदि ।
स्मृतिरस्तु तथा नाभिलाषादिस्तदभावत: ॥ - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.२०
६७. समारोपव्यवच्छेदस्सम: स्मृत्यनुमानत: ।
स्वार्थे प्रमाणता तेन नैकत्रापि निवार्यते ॥ - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.२१ ६८. स्मृतिर्न लैङ्गिकं लिङ्गज्ञानाभावेपि भावतः ।
सम्बन्धस्मृतिवन्न स्यादनवस्थानमन्यथा ॥ - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.२२ ६९. नाप्रमाणात्मनो स्मृत्या सम्बन्ध : सिद्धिमृच्छति ।
प्रमाणानर्थकत्वस्य प्रसंगात्सर्ववस्तुनि ॥ - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.२४ ७०. स्मृतिस्तदिति विज्ञानमर्थातीते भवत्कथम् ।
स्यादर्थवदिति स्वेष्टं याति बौद्धस्य लक्ष्यते ॥ - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १.१३.२५
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