Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार
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अर्थ में उत्पन्न नहीं होने के कारण,(५) विसंवादक होने से (६) समारोप का व्यवच्छेदक नहीं होने के कारण अथवा (७) प्रयोजन का साधन नहीं होने से ?७७ ___ इन समस्त आशंकाओं का प्रभाचन्द्र ने क्रमशःनिराकरण कर स्मृति का प्रामाण्य प्रतिष्ठित किया है।८ ।
१- गृहीत अर्थ के अधिगम मात्र से स्मृति को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता,क्योंकि अनुमान के द्वारा गृहीत अग्नि का उत्तरकाल में प्रत्यक्ष होने पर उसे भी अप्रमाण नहीं माना जाता । यदि अधिगत अर्थ का अधिगम करने पर भी प्रत्यक्ष के द्वारा अपूर्व अर्थांश का ज्ञान होना संभव है, अतः वह प्रमाण है.तो स्मृति को भी इस आधार पर अप्रमाण नहीं कहा जा सकता,क्योंकि वह भी वर्तमानकाल में ज्ञात अर्थ का अतीतकाल के रूप में ज्ञान कराने से अपूर्व अर्थांश का ज्ञान कराती है। अत: वह भी प्रमाण है । संक्षेप में कहें तो स्मृति प्रमाण है,क्योंकि प्रमाणान्तर से ज्ञात अर्थ का भी वह किसी अंश से अपूर्व अर्थ के रूप में ज्ञान कराती है । वादिदेवसूरि ने गृहीतग्राही स्मृति ज्ञान को भी स्वपर व्यवसायी एवं अविसंवादक होने से प्रमाण माना है । ७९
२- परिच्छित्तिविशेष के अभाव से भी स्मृति को अप्रमाण कहना उचित नहीं है,क्योंकि कहीं रखी हुई वस्तु,विचारित वस्तु एवं अधीत वस्तु आदि का ज्ञान स्मरण से ही होता है,अन्य किसी ज्ञान से नहीं, अत: उसमें परिच्छित्ति विशेष का अभाव नहीं है। .
३- अविद्यमान अतीत अर्थ में प्रवर्तक होने से स्मृति अप्रमाण है,यह भी मान्यता असंगत है। अतीत अर्थ की स्वकाल में अविद्यमानता होती है या स्मृतिकाल में? स्वकाल में तो उसकी अविद्यमानता होती नहीं है ,क्योंकि तब वह विद्यमान रहता है । स्मृतिकाल में स्मृति के ग्राह्य अर्थ की असत्ता,अप्रमाणता का अंग नहीं है,क्योंकि उस स्थिति में बौद्ध मत में प्रत्यक्ष के भी अप्रामाण्य का प्रसंग आता है। प्रत्यक्ष के ग्राह्यविषय की भी प्रत्यक्षज्ञान काल में सत्ता नहीं रहती,क्योंकि बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष का ग्राह्य क्षण भिन्न एवं प्राप्यक्षण भिन्न माना गया है।
४- अर्थ से उत्पन्न नहीं होने के कारण भी स्मृति को अप्रमाण कहना अयुक्त है,क्योंकि हम (जैन) प्रत्यक्ष का भी अर्थ से उत्पन्न होना स्वीकार नहीं करते हैं। जैन मत में ज्ञान की उत्पत्ति में अर्थ
७७. न्यायकुमुदचन्द्र भाग-२, पृ.४०७-४०८ ७८. वादिदेवसूरि ने भी स्याद्वादरलाकर में इन समस्त आशंकाओं को उठाकर निराकरण किया है । द्रष्टव्य, स्याद्वादरत्नाकर,
पृ.४८६-४८८ ७९. गृहीतार्थग्राहित्वेनापि ज्ञानस्य प्रामाण्यम् ।- स्याद्वादरलाकर पृ. ४८७.४ ८०. इस प्रसंग में प्रभाचन्द्र ने धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक का एक श्लोक उद्धत किया है, यथा
भिन्नकालं कथं ग्राह्यमिति चेद् ग्राह्यतां विदुः । हेतुत्वमेव युक्तिज्ञास्तदाकारार्पणक्षमम् ।।उद्धत, न्यायकुमुदचन्द्र, पृ. ४०९,प्रमाणवार्तिक,२.२४७
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