Book Title: Bauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार
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उत्पन्न नहीं कहा जा सकता।७१ जैन दार्शनिकों ने बौद्धों की अर्थाकारता का प्रबल खण्डन किया है । इसकी चर्चा षष्ठ अध्याय में की गयी है ।
इस प्रकार विद्यानन्द स्मृति ज्ञान में प्रमाण की समस्त विशेषताओं का आपादन कर उसे लोक व्यवहार के लिए उपयोगी, कथञ्चित् अगृहीतग्राही, स्व एवं अर्थ का प्रकाशक, समारोप का व्यवच्छेदक, व्याप्तिज्ञान की प्राहकता में प्रमाणभूत एवं अविसंवादक प्रतिपादित करते हैं।
प्रभाचन्द्र के द्वारा स्मृति - प्रमाण का स्थापन
प्रभाचन्द्र ने स्मृति के प्रामाण्य का प्रतिष्ठापन करने से पूर्व स्मृति को प्रमाण न मानने वाले बौद्धादि के मत को पूर्वपक्ष में रखा है एवं तदनन्तर उसका निरसन किया है।
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पूर्वपक्ष - स्मृति में अविसंवाद मानना अनुपपन्न है । 'स्मृति' शब्द का वाच्यार्थ ज्ञाता होता है, या ज्ञान ? ज्ञाता होना युक्त नहीं है क्योंकि पूर्वोत्तर ज्ञान के बिना किसी का ज्ञाता होना संभव नहीं है । यदि स्मृति का वाच्यार्थ ज्ञान है तो ज्ञानमात्र उसका वाच्यार्थ है या अनुभूतविषयक ज्ञान ? प्रथम विकल्प के अनुसार तो प्रत्यक्षादि प्रमाणों को भी स्मृति मानना होगा, क्योंकि वे भी ज्ञानरूप हैं। यदि अनुभूत अर्थ में होने वाले ज्ञान को स्मृति कहा जाता है, तो अनुभूत अर्थ में ज्ञान हुआ यह कैसे प्रतीत होता है ? प्रत्यक्ष से, स्मृति से अथवा दोनों से ? प्रत्यक्ष से तो यह ज्ञात नहीं होता, क्योंकि तब स्मृति नहीं रहती है । असत् स्मृति को प्रत्यक्ष विषय नहीं करता । यथा खरविषाण असत् होने से प्रत्यक्ष द्वारा नहीं जाने जाते। इसी प्रकार स्मृति भी प्रत्यक्षकाल में असत् होने से प्रत्यक्ष द्वारा जानी नहीं जा सकती । प्रत्यक्ष द्वारा स्मृतिज्ञान न होने से यह नहीं कहा जा सकता कि प्रत्यक्ष अनुभूत पदार्थ की स्मृति को जानता है। स्मृति से भी उसका ज्ञान नहीं होता, क्योंकि स्मृति प्रत्यक्ष एवं उसके अर्थ को विषय नहीं करती । स्मृति के द्वारा यह ज्ञान नहीं होता कि “मैं अनुभूत अर्थ में उत्पन्न हुई हूँ।” यदि अनुभूतता प्रत्यक्षगम्य होती तो स्मृति भी यह जान सकती थी कि मैं अनुभूत अर्थ में उत्पन्न हुई हूँ, किन्तु प्रत्यक्ष का विषय अनुभूतता नहीं अनुभूयमानता है। प्रत्यक्ष एवं स्मृति दोनों से भी स्मृतज्ञान को नहीं जाना जा सकता, क्योंकि इनमें पृथक्रूपेण जो दोष आते हैं वे इन दोनों के मिलने पर भी आते हैं । अतः स्मृति की स्वरूपतः व्यवस्था नहीं है ।
स्मृति का विषय क्या है ? अर्थमात्र उसका विषय है या अनुभूतता से विशिष्ट अर्थ उसका विषय है ? अर्थमात्र उसका विषय नहीं हो सकता, क्योंकि तब समस्त प्रमाण स्मृतिरूप हो जायेंगें । अनुभूतता से विशिष्ट पदार्थ भी उसका विषय नहीं हो सकता, क्योंकि तब देवदत्त के द्वारा अनुभूत पदार्थ में यज्ञदत्त के ज्ञान एवं धारावाही प्रत्यक्ष को स्मृति मानना होगा। अनुभूत अर्थ के विषय में भी स्मृति प्रमाण नहीं है, क्योंकि उसका विषय विद्यमान नहीं रहता है। जिसका विषय विद्यमान नहीं होता, उसे
७१. नार्थाज्जन्मोपपद्येत प्रत्यक्षस्य स्मृतेरिव ।
तद्वत्स एव तद्भावादन्यथा न क्षणक्षय: ॥ - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.१३.२७
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